शनिवार, 29 जनवरी 2022

महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस और जवाहर लाल नेहरु की कल्पना का भारत कैसा था ?

 

जनवरी का तीसरा सप्ताह यानी तेईस से तीस तारीख का समय, देश भर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जन्मतिथि, गांधी जी की पुण्य स्मृति और गणतंत्र दिवस समारोह तथा अपनी सैनिक क्षमता पर गर्व करने का अवसर बन जाता है। इसी के साथ बापू के उपदेशों या उनके सिद्धांतों का उल्लेख करने और उन पर अपनी राय जाहिर करने का मौका भी मिल जाता है। इस बात पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है कि इन दोनों महापुरुषों ने देश के स्वतंत्र होने के बाद उसका संचालन किस प्रकार हो, इसकी क्या रूपरेखा बनाई थी ?

गांधी बनाम बोस

इस पृष्ठभूमि में यह आकलन करना ज़रूरी हो जाता है कि उनमें से कौन सही या गलत था और यदि कोई अन्य विकल्प अपनाया जाता तो क्या देश का वही स्वरूप होता जो आज है ?

इन दोनों के संबंधों, सोच और कार्य प्रणाली पर विचार करते हुए तीसरे महानायक पंडित नेहरू का ध्यान आना स्वाभाविक है। कह सकते हैं कि ये भारत की त्रिमूर्ति थे और यदि सरदार पटेल को इसमें मिला दिया जाए तो चार मुख वाले साक्षात ब्रह्मा की आकृति बनकर उभरती है। ये चारों नायक देशभक्ति, कर्तव्य परायणता और समर्पण की अद्भुत शक्ति धारण किए हुए थे और इसी कारण जनता उन पर भरोसा करते हुए अपनी जान तक न्यौछावर करने के लिए तैयार रहती थी।

आज क्योंकि इंटरनेट और गूगल की कृपा से इतिहास की प्रकट और गोपनीय सामग्री उपलब्ध है इसलिए बहुत सी घटनाओं की सत्यता की पुष्टि कर लेने के बाद उन पर विचार और मंथन वर्तमान स्थिति को सामने रखकर किया जा सकता है। इससे यह निष्कर्ष निकालने में सुविधा है कि कौन सा मत या विचारधारा अधिक उपयुक्त थी।

क्या आज देश के संचालन में उनका महत्व स्वीकार कर भविष्य की योजनाएं बनाई जा सकती हैं ताकि देश अधिक गति से प्रगति कर सके ?

सबसे पहले सुभाष चंद्र बोस के उस भाषण को सामने रखते हैं जो उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में दिया था। उनका कहना था कि स्वतंत्र भारत की पहली प्राथमिकता गरीबी मिटाने, बेरोज़गारी दूर करने और देश को शिक्षित करने की है। इसके लिए उन्होंने प्लानिंग अर्थात योजना बनाकर काम करने की राह दिखाई। एक समिति बनाई जिसका अध्यक्ष पंडित नेहरू को बनाया ताकि वे स्पष्ट रूप से दिशा निर्धारण कर सकें। आज के योजना आयोग की यह नींव थी।

उनका मानना था कि देश में वर्ग हीन समाज का निर्माण समाजवाद को आधार बनाकर हो। इसकी पूर्ति के लिए औद्योगिकीकरण का विस्तार हो और  कृषि विकास दूसरे नंबर पर हो। वैज्ञानिक दृष्टिकोण, आधुनिक मशीनरी का आयात तथा उसका अपने हिसाब से इस्तेमाल करने की दृष्टि हो।

शिक्षा सबके लिए एक समान हो और उस पर सबका अधिकार हो तथा यह सबके लिए एक जैसी और आसानी से सुलभ हो। उनका मानना था कि भेदभाव रहित शिक्षा से ही समाज से बेरोज़गारी और गरीबी को ख़त्म किया जा सकता है।

उन्होंने अपने विशाल अनुभव और अनेक देशों में इस्तेमाल की गई व्यवस्थाओं का अध्ययन करने के बाद ही यह बातें कही थीं। यहां यह ध्यान दिलाना ज़रूरी है कि सुभाष चन्द्र बोस के पास नगर निगम के प्रशासक के रूप में व्यावहारिक अनुभव था और वे जनता की समस्याओं को समझने और उनके समाधान निकालने के लिए प्रसिद्ध थे।

बोस बनाम गांधी

अब हम महात्मा गांधी की बात करते हैं जो वर्ग हीन समाज के स्थान पर पिछड़े, दलित, हरिजन और अनेक जातियों में बंटे समाज के विकास के लिए उनके अधिकारों को सुरक्षित रखने की बात करते हैं। इसके लिए वे उन्हें मिलाकर एक विशाल समाज तैयार करने के स्थान पर अलग अलग रखने को ही उनकी उन्नति का आधार बनाते हैं।

आज हमारा देश वर्ग संघर्ष, जातिवाद और अल्पसंख्यक समुदाय के उत्पीड़न और इसके साथ ही अपने स्वार्थों के कारण उनके तुष्टिकरण के जिस दौर से गुजर रहा है, उसकी नींव आज़ादी के तुरंत बाद पड़ गई थी। यदि हम बोस की वर्ग हीन समाज की नीति पर चलते तो क्या बेहतर नहीं होता ?

देश को कृषि प्रधान बनाने के प्रयास गांधी जी की देन हैं और उसमें भी परंपरागत साधनों जैसे कि हल बैल से खेती करने को ही प्राथमिकता देने और वैज्ञानिक तरीकों को न अपनाने का परिणाम क्या आज तक हम नहीं भुगत रहे हैं ?

गांधी जी मशीनों के इस्तेमाल और यहां तक कि रेल, अस्पताल की ज़रूरत नहीं समझते थे । अंग्रेजी दवाइयों का इस्तेमाल न करने पर ज़ोर देते थे और यहां तक कि परिवार नियोजन के लिए गर्भ निरोधक सामग्री के इस्तेमाल को बुरा समझते थे। इसके लिए आत्मसंयम रखने को प्रोत्साहित करते थे। उनके लिए नवीन टेक्नोलॉजी पर आधारित औद्योगिक भारत के स्थान पर ग्रामीण और कुटीर उद्योग का विकास प्राथमिकता थी।

गांधी जी आध्यात्मिक राजनीतिज्ञ थे जबकि सुभाष आधुनिक राजनेता थे। नेहरू भी चाहते थे कि हम स्वदेशी संसाधनों के बल पर ही विकास करें जबकि बोस विदेशों से अपनी आवश्यकतानुसार सभी चीजों का आयात करने के हिमायती थे। नेहरू द्वारा आयात और विदेशी पूंजी निवेश पर कड़े नियम बनाने से हम विदेशी तकनीक और पूंजी निवेश से वंचित हो गए। इस नीति को जब पूरी तरह से बदल दिया गया तब ही देश आत्मनिर्भर होना आरंभ हुआ, क्या यह गंभीरता से सोचने का विषय नहीं है ?

नेहरू और बोस दोनों गांधी जी को अपने पुत्रों की भांति प्रिय थे लेकिन जब उत्तराधिकारी की बात आई तो उन्होंने भारतीय सामंती व्यवस्था के अनुसार बड़े पुत्र को चुना, यदि योग्यता का आधार होता तो सुभाष हर प्रकार से अधिक काबिल थे और लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनकी दावेदारी प्रबल थी।

जहां तक नेहरू और बोस की शिक्षा का संबंध है, दोनों ही ने समृद्ध परिवारों से होने के कारण विदेशों में शिक्षा प्राप्त की। उन्हें दुनिया देखने और उनके तरक्की करने के उपायों को जानने समझने का अवसर मिला और वे अपने देश को अपने अनुभवों से समृद्ध करना चाहते थे। इसके लिए सबसे पहले ज़रूरी था कि आज़ादी और वह भी सम्पूर्ण रूप से हासिल की जाए।

सुभाष चंद्र बोस आज़ादी हासिल करने के लिए किसी भी साधन का इस्तेमाल करने और किसी की भी सहायता अपनी शर्तों पर लेने के लिए कोई भी हद पार कर सकते थे। इसके लिए वे विदेशी धरती पर भारत की आज़ादी की घोषणा कर सकते थे, अंग्रेजों की नाक में दम कर सकते थे। आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना, दिल्ली चलो का नारा और जय हिन्द का उदघोष उनकी राजनीतिक सूझबूझ का परिचायक है।

पता नहीं यह कितना सत्य है कि जब लॉर्ड ऐटली के भारत प्रवास के समय यह पूछा गया कि भारत को आजाद कराने में गांधी और सुभाष में से किसका योगदान अधिक है तो उनका जवाब था कि अंग्रेजी हुकूमत के लिए बोस अधिक खतरनाक थे और उनके कारण ही अंग्रेज भारत से अपना बोरिया बिस्तर समेटने के लिए मजबूर हुए। इसके विपरीत गांधी जी का भय उन्हें ज्यादा नहीं था और उन्होंने अपने जवाब में कहा कि स्वतंत्रता हासिल करने में उनका योगदान बहुत कम था।

उद्योग बनाम कृषि

वर्तमान भारत के संदर्भ में देखा जाए तो औद्योगिक भारत का निर्माण प्रथम स्थान पर और कृषि क्षेत्र को दूसरे स्थान पर रखने से ही देश समृद्ध राष्ट्रों की पंक्ति में आ सकता है। खेतीबाड़ी उतनी हो जिससे खाने पीने की जरूरतें पूरी हो जाएं और उसमें भी  आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल हो जिससे कम से कम लोगों की जरूरत हो। आज किसानों की बढ़ती संख्या और खेतीबाड़ी को लाभदायक व्यवसाय न बनने देने के लिए क्या कृषि को पहले स्थान पर रखना जिम्मेदार नहीं है ?

आज के हालात में वर्ग, जाति, वर्ण, समुदाय के बिना देश को एकसूत्र में बांधने की कल्पना करना असम्भव जैसा लगता है। काश यह संभव हो सके कि एक दिन ये सब निरर्थक हो जाएं ! क्या ऐसा हो सकता है, ज़रा सोचिए?


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