शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

सब कुछ ठीक या कुछ भी सही नहीं का द्वंद सोच बदल सकता है

अक्सर स्वयं हम यह कहते सुनाई देते हैं और अपने आसपास के लोगों से भी अक्सर सुनने को मिलता है कि जीवन में कुछ नहीं हो पा रहा, जीने का कोई मतलब नहीं रहा, कैसा होगा कल, परेशानियां ख़त्म नहीं होतीं, समस्याएं बहुत हैं, उनका हल दिखता नहीं, क्या करें और क्या न करें ? इसी उधेड़बुन में दिन समाप्त हो जाता है और अगला दिन भी इन्हीं बातों में निकल जाता है।

इसके विपरीत कुछ लोग और हम स्वयं भी यह सोचते और कहते सुनाई देते हैं कि सब कुछ ठीक है, कोई दिक्कत है ही नहीं, किसी तरह की उलझन नहीं, जो हुआ, वह ठीक, जो हो रहा है, बेहतर है और जो होगा, सब से बढ़िया होगा।

 सरोकार

संसार में जितने भी ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिनके काम याद आते रहते हैं, उनके अविष्कार, अनुसंधान, प्रयोग और उपलब्धियों से निरंतर लाभ उठाते रहते हैं, उनके प्रति आभार मानते हुए यह कहते नहीं थकते कि उन्होंने यह न किया होता तो हमारा जीवन कैसा होता !

इनमें वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यों से जुड़े लोग और राजनेता सभी शामिल हैं । यह एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। आज भी कुछ लोग बिना किसी बात से विचलित हुए अपनी धुन में लगे, कुछ न कुछ नया करने की कोशिश करते रहते हैं। 

उनके लिए सफल होने या अपने काम में कामयाब न होने का अर्थ एक जैसा ही है और उनकी सेहत पर, चाहे मानसिक हो या शारीरिक, सफलता या असफलता से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। असल में इन दोनों शब्दों का उनके लिए कोई अर्थ नहीं, उनका लक्ष्य या उद्देश्य ही प्रमुख है। ऐसा इसलिए है कि उनकी दुनिया केवल स्वयं से सरोकार रखने की है, बाहर की कोई चीज़ उन्हें प्रभावित नहीं कर पाती। इनमें नायक भी हो सकते हैं, खलनायक और अधिनायक भी जो अपने मिशन को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते है।

विचार का सिद्धांत

दुनिया की कोई भी चीज हो, उसकी शुरुआत एक विचार से होती है और जैसे जैसे वह वस्तु बढ़ने लगती है, दूसरे लोगों की सोच उसमें शामिल होती जाती है और एक दिन उसका आकार इतना बड़ा हो जाता है कि वह व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है। उसके बिना रहने की कल्पना से भी डर लगता है। ज़रा सोचिए कि अगर हम अपने मन से उस वस्तु को हटा देते, उस पर ध्यान नहीं देते तो क्या उसका ऐसा अस्तित्व होता कि जिसके बिना जीवन की कल्पना भी आसान नहीं होती ।

इसके पीछे और कुछ नहीं, बस एक छोटा सा सिद्धांत है कि जब हम किसी वस्तु, व्यक्ति या वातावरण के प्रति खिंचाव महसूस करते हैं तो उसके हमारे जीवन का अंग बन जाने से यह अनुभव होता है कि वह साथ में ही तो है, चिंता की क्या बात है, सब कुछ ठीक होगा, बस अपने काम से काम रखिए।

मान लीजिए कि आपको धन का आकर्षण है और धनी बनना चाहते हैं तो क्या मन में यह बात नहीं बस जाती कि धन दौलत जमा करने के लिए किसी भी उपाय का सहारा लेने में कोई हर्ज नहीं है । वह सही है या गलत, इसका विचार किए बिना सम्पत्ति, वैभव और उसका विस्तार करते जाना ही एकमात्र लक्ष्य होता है। यह सोच जितनी ताकतवर होती है उतना ही व्यक्ति अमीर होता जाता है।

यही कारण है कि केवल एक प्रतिशत लोगों का कब्ज़ा पूरी दुनिया के छियानवे प्रतिशत संसाधनों पर है जिसकी बदौलत उनके पास अकूत संपत्ति है। बाकी निन्यानवे प्रतिशत लोग उनसे ईष्र्या करते रहते हैं, नकारात्मक ढंग से सोचते रहने से हमेशा अपने लिए बुरे विचारों की कल्पना करते रहते हैं और उनकी यही सोच उनके अपने लिए सत्य होती दिखाई देती है।

आग में घी डालने की तरह संपन्न और ताकतवर लोग आपको गरीब होने, बेरोजगार रहने और कभी भी संपन्न न होने देने के लिए लगातार आपका मनोबल गिराते रहते हैं और वही बात मानने पर ज़ोर डालते रहते हैं जो असल में आप नहीं हैं। इस तरह वे हतोत्साहित करते रहते हैं और आपको स्वयं अपना और एक दूसरे का प्रतिद्वंदी बनाने से लेकर दुश्मन तक बना देते हैं।

हकीकत यह है कि न आप निर्धन हैं, न निकम्मे और प्रतिभाहीन हैं । आप सभी तरह से सक्षम हैं, बस आपकी सोच पर धनीमानी, अभिमानी और सत्ताधीशों का कब्ज़ा हो जाने से अपने को कमज़ोर और अयोग्य मान लेते हैं।

आभार और आकार

असल में होता यह है कि व्यक्ति आपनी परिस्थितियों के वश में आकर स्वयं के बारे में इस तरह का एक आकार या डिज़ाइन बना लेता है जिसमें वह अपने बारे में बुरा सोचता है, अपनी कमियों को हावी होने देता है और पूर्ण रूप से ईश्वर अर्थात भाग्य पर निर्भर हो जाता है।

इस स्थिति में उसके मन और विचार पर उसका अधिकार नहीं रहता तथा वह सरल शब्दों में कहें तो दूसरों के हाथों की कठपुतली बन जाता है।  उनके इशारों पर चलने लगता है और अपना स्वाभिमान तक खो बैठता है। होता यह है कि वह अपने प्रति आभार मानने और अपनी बुद्धि के अनुसार चलने को अहमियत न देते हुए दूसरों की कुटिलता का शिकार होता जाता है। वह जैसी स्थिति है उसी में रहने को ही अपनी किस्मत मान लेता है और पीछे रह जाता है।

इसे समझने के लिए क्या इतना ही काफ़ी नहीं है कि आज भी हमारे देश में एक बड़ी आबादी को अब से पचास साल पहले की स्थिति में रहना पड़ रहा है। इसका एक ही कारण है कि हम अपना धन्यवाद करने, अपने प्रति आभार मानने और अपने को समर्थ समझने के स्थान पर उन लोगों की बातों को पत्थर की लकीर मान लेते हैं जिनका उद्देश्य हमें कभी भी अपने बराबर न होने देना है।

अपने से सरोकार

जीवन में सफल होने, परिवार हो या समाज या फिर देश हो, अपनी जगह पाने तथा किसी भी कीमत पर स्वयं का निरादर न तो करने और न ही होने देने का एक ही मंत्र है कि आपके पास जो भी है, उसके प्रति आभार मानिए क्योंकि वही आपकी समृद्धि का बीज है। उसमें अंकुर फूटने दीजिए और फिर देखिए कि किस प्रकार यह एक मज़बूत पेड़ बनता है जिस पर किसी और का नहीं, केवल आपका अधिकार है।

आपके अपने पास जो है और जो आसपास है, वह अमूल्य है, उसकी प्रशंसा करने से उसका आशीर्वाद मिलेगा और तब व्यक्ति किसी अन्य पर निर्भर रहने के स्थान पर स्वयं अपने पर ही भरोसा करेगा। खुशहाली का मूल तत्व यही है। ऐसा होने पर  आसानी से समझा जा सकता है कि कोई दूसरा उस पर क्यों मेहरबान हो रहा है, मुफ्त में कुछ देने या मिलने का वायदा कर अपना कौन सा स्वार्थ पूरा कर रहा है ? क्या इसके बदले में वह आपका स्वाभिमान तथा स्वतंत्रता तो नहीं छीन रहा ?

आत्मविश्वास, आत्मनिर्भर, आत्मसम्मान जैसे भारी भरकम शब्दों के फेर में पड़ने से अच्छा है कि जैसे आप हैं, जो कुछ अपने पास है, उस पर भरोसा रखिए, उसके बाद कुछ भी करने की हिम्मत तो अपने आप आ ही जायेगी।


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