शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

धार्मिक चिन्ह/पढ़ाई से बेहतर है ऐसी शिक्षा जो वैज्ञानिक सोच बढ़ाए

 

संसार में जितने भी धर्म हैं, प्रत्येक का एक न एक प्रतीक अवश्य है जिसके आधार पर उसके मानने वालों की पहचान से लेकर उनके जीवन जीने के तरीकों का ज्ञान होता है।


धर्म और जीवन शैली

धार्मिक प्रतीकों के अतिरिक्त सभी धर्मो में इस बात का वर्णन है कि जीवन जीने के लिए किन सिद्धांतों, मान्यताओं, परंपराओं, रीति रिवाजों और अन्य धर्मों के साथ तालमेल बिठाए रखने के लिए किन नियमों का पालन करना चाहिए। इसका उद्देश्य यही है कि धार्मिक आधार पर कोई लड़ाई झगड़ा, तनाव, संघर्ष और वैमनस्य न हो और सभी शांति और सद्भाव से एक दूसरे से प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हुए मिलजुलकर रहें।

यहां तक तो ठीक था लेकिन जब इस धार्मिक समझदारी में अपने धर्म को दूसरों से श्रेष्ठ समझने की मानसिकता बढ़ने लगी तो उसमें एक तरह का जिद्दीपन शामिल होता गया।

इसका खतरनाक नतीज़ा यह निकला कि धार्मिकता का स्थान धर्मांध कट्टरता ने ले लिया और लोग इसे ही वास्तविक धर्म समझने लगे। यहीं से असहिष्णुता यानी टॉलरेंस न होने की शुरुआत हुई और समाज विरोधी तत्वों को मौका मिल गया कि वे धार्मिक आधार पर समाज को बांट सकें।

संयोग देखिए कि दुनिया के लगभग एक तिहाई देशों के राष्ट्रीय ध्वजों में धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है और इनमें भारत का तिरंगा भी है।

जहां एक ओर धर्म का आधार मन और शरीर की पवित्रता, विचारों की पावनता, अध्यात्म की ओर ले जाने वाली मानसिकता, दैवीय शक्तियों की अनुकंपा है, वहां दूसरी ओर जीवन जीने की अपनी विशिष्ट शैली भी है। ज़िंदगी और मौत के बीच का सफर किस तरह से तय किया जाए, यह प्रत्येक धर्म में अलग अलग भले ही हो लेकिन उसका लक्ष्य केवल एक ही है कि धार्मिक भावनाओं को कभी भी आपसी मतभेद का आधार न बनने दिया जाए।


धर्म और शिक्षा

धर्म का काम है लोगों को जोड़कर रखना और शिक्षा का उद्देश्य है कि बिना धार्मिक भेदभाव किए व्यक्ति का बौद्धिक विकास कैसे हो, इसकी रूपरेखा बनाकर व्यक्ति को इतना सक्षम कर देना कि वह अपनी रोज़ी रोटी कमा सके और स्वतंत्र होकर जीवन यापन कर सकने योग्य हो जाए।

किसी भी शिक्षण संस्थान द्वारा धार्मिक प्रतीक चिन्हों का इस्तेमाल उचित तो नहीं है लेकिन यह किया जाता है। हो सकता है कि अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए ऐसा किया जाता हो लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वहां पढ़ने वालों के लिए यह ज़रूरी कर दिया जाए कि वे उस धर्म के अनुयायी भी बन जाएं।

शिक्षा का आधार किसी धर्म की मान्यताओं के अनुसार शिक्षा नहीं बल्कि आधुनिक और वैज्ञानिक सोच का विकास होना चाहिए। यही कारण है कि शिक्षण संस्थानों से यह उम्मीद की जाती है कि वे उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों को धर्म का महत्व तो बताएं लेकिन किसी एक धर्म को बेहतर और दूसरों को कमतर न दिखाएं। इसके साथ एक ही धर्म क्यों, देश में प्रचलित सभी धर्मों के बारे में इस प्रकार बताया जाए कि उनमें आपस में तुलना, प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता की भावना विद्यार्थियों में न पनपे।

अब हम इस बात पर आते हैं कि क्या धर्म के आधार पर विद्यार्थियों का पहनावा अर्थात उनकी ड्रेस को तय किया जा सकता है ? इस बारे में अनेक मत हो सकते हैं लेकिन व्यावहारिकता यही है कि इसमें धर्म, उसके प्रतीक चिन्ह और धार्मिक आधार पर तय किए गए लिबास का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

एक दूसरा मत यह है कि जब विभिन्न धर्मों के विद्यार्थी अपनी धार्मिक पहचान दर्शाने वाले वस्त्र पहनकर स्कूलों में जायेंगे तो उनमें बचपन से ही एक दूसरे के धर्म को समझने और उसका आदर करने की भावना विकसित होगी। वे बड़े होकर अपने धर्म का पालन करते हुए अन्य धर्मों के मानने वालों का सम्मान करेंगे और इस तरह धार्मिक एकता की नींव पड़ना आसान होगा।

एक तीसरा मत यह भी है कि जिस प्रकार फ्रांस ने अपने यहां शिक्षा को धार्मिक प्रतीकों और धार्मिक आचरण से अलग रखा है और किसी भी प्रकार का दखल न होने देने की व्यवस्था की है, उसी प्रकार हमारे देश में भी किया जा सकता है !

यह व्यवस्था हमारे यहां लागू होना संभव नहीं लगती क्योंकि सिख धर्म के विद्यार्थियों द्वारा अपने केश बांधने के लिए पगड़ी धारण करने की परम्परा है और इसी आधार पर इस्लाम को मानने वाले मुस्लिम छात्राओं के लिए भी हिजाब और बुर्का पहनने की अपनी मांग को उचित बता रहे हैं।

विवाद का हल चाहे जो हो लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि विद्यार्थियों की शिक्षा किसी भी कीमत पर नहीं रुकनी चाहिए। इसके लिए  यदि उन्हें नियमों में कुछ ढील भी देनी पड़े तो यह ठीक होगा क्योंकि ज़िद्दी रुख अपनाने से अच्छा लचीला बर्ताव करना है।

इस संदर्भ में इकबाल का यह अमर गीत आज एक बार फिर गुनगुनाना जरूरी हो गया है।


तराना. ए. हिन्दी

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा,

हम बुलबुले हैं इसकी यह गुलिस्तां हमारा।

गुबर्त में हों अगर हम रहता है दिल वतन में,

समझो वहीं हमें भी दिल हो जहां हमारा।

पर्वत वह सबसे उंचा हमसाया आसमां का,

वह संतरी हमारा वह पासबां हमारा।

गोदी में खेलती हैं इसकी हजारों नदियां,

गुलशन है जिसके दम से रश्के-जिनां हमारा।

ऐ आबे-रूदे-गंगा वह दिन है तुझ को,

उतरा तिरे किनारे जब कारवां हमारा।

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,

हिंदी हैं  हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा।

यूनानो-मिस्त्रो-रोमा, सब मिट गए जहां से,

अब तक मगर है बाकी नामो--निशां हमारा।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,

सदियों रहा दुश्मन दौरे-ज़मां हमारा।

इक़बाल, कोई महरम अपना नहीं जहां में।

मालूम क्या किसी को दर्दे-निहां हमारा।


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