शनिवार, 23 अप्रैल 2022

रचनाकार को समर्पित विश्व पुस्तक और कॉपीराइट दिवस


पुस्तकें किसी भी व्यक्ति की सबसे अच्छी साथी होती हैं । मन उदास हो, किसी बात को लेकर गहन चिंतन चल रहा हो, समय न कट रहा हो या मान लीजिए सोते सोते नींद उचट गई हो तो किताब से बढ़िया कोई साथी नहीं है। हालांकि मोबाइल, कंप्यूटर और दूसरे आधुनिक साधनों ने पढ़ने के तरीकों को बदल दिया है लेकिन इससे पुस्तक और उसके रचनाकार का महत्व कम नहीं होता।

लेखकों को समर्पित

यूनेस्को द्वारा प्रतिवर्ष तेईस अप्रैल को विश्व पुस्तक और कॉपीराइट दिवस मनाए जाने की शुरुआत विलियम शेक्सपियर की पुण्य तिथि की स्मृति से  की गई थी। संयोगवश उनका जन्म भी अप्रैल में हुआ था।  क्या ही अच्छा हो कि भारत के किसी महान लेखक जैसे, गुरुदेव टैगोर, मुंशी प्रेमचन्द या भारत के किसी भी भाषा के सर्वमान्य साहित्यकार के जन्मदिन या पुण्य तिथि पर विश्व पुस्तक दिवस मनाया जाए। इसका स्वरूप भारतीय भाषाओं के लेखकों के सम्मेलन, साहित्यिक चर्चा तथा अनेक विषयों जैसे पर्यावरण, वानिकी, नदियों की शुद्धता, प्रदूषण विहीन वातावरण जैसे विषयों से जोड़कर तैयार किया जा सकता है।

उदाहरण के लिए इस माह 11 तारीख को अपनी लेखनी से भारतीय साहित्य को समृद्ध करने वाले विष्णु प्रभाकर की पुण्य तिथि पड़ती  है। उनकी स्मृति से ही भारतीय साहित्य दिवस मनाए जाने की शुरुआत की जा सकती है ।

अपने जीवन के 97 वर्ष देख चुके विष्णु प्रभाकर द्वारा हिंदी भाषा की सेवा करने की गौरवशाली जीवन यात्रा रही है। वे राष्ट्रीय सम्मान पद्मभूषण के अतिरिक्त बहुत से अन्य साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित थे। उनकी रचना आवारा मसीहा जो शरत चंद्र की सबसे अधिक प्रमाणित जीवनी है, एक ऐसा ग्रंथ है जो एक बार पढ़ना शुरू करने पर समाप्त किए बिना मन नहीं मानता, बल्कि कुछ प्रसंग तो ऐसे हैं जिन्हें फिर से पढ़ने को मन करता है। शरत बाबू की रचनाओं पर फिल्में भी बन चुकी हैं और देवदास तो अनेक फिल्मकारों द्वारा अपने अपने ढंग से बनाई गई है।

लेखक की लोकप्रियता की पहली शर्त यह है कि उसका लेखन मन को छू सके। देवदास हो या आवारा मसीहा दोनों में यह शक्ति है कि वे पाठक को बांधकर रखने और एक अलग ही दुनिया में ले जाने में सक्षम हैं। उल्लेखनीय है कि बांग्ला भाषा के लेखक की जीवनी एक हिंदी लेखक लिख रहा है और लगभग चैदह वर्ष इसकी सामग्री जुटाने के लिए देश विदेश का भ्रमण करने और फिर पूर्णतया तथ्यों पर आधारित एक अभूतपूर्व रचना पाठकों को दे रहा है, ऐसे उदाहरण भारतीय साहित्य में बहुत कम हैं। शरत और उनकी रचनाओं  को समझने के लिए आवारा मसीहा को पढ़ना अनिवार्य है।

विष्णु प्रभाकर की रचनाओं में नारी मन का अद्भुत चित्रण है। उनकी कृतियों में स्त्री अपने लगभग सभी रूपों में साकार होती है, चाहे बंदिनी में देवी के प्रकट होने का अंधविश्वास हो, तट के बंधन की नीलम हो, अर्धनारीश्वर की सुमिता और विभा हो, निशिकांत की कमला हो या फिर किसी अन्य रचना का कोई स्त्री पात्र हो।

पुरुष और स्त्री के सभी प्रकार के संबंधों पर कहानी, उपन्यास, नाटक सहित सभी विधाओं में विष्णु प्रभाकर ने अपने पात्रों के माध्यम से व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय और राजनीतिक विषयों को बड़ी ही सरलता, सादगी और दिल को छू लेने वाली भाषा में लिखा है।

विश्व पुस्तक दिवस पर मुंशी प्रेमचंद का स्मरण होना स्वाभाविक है। उनकी कहानियां पढ़ते हुए लगता है कि जैसे वे वर्तमान की घटनाओं का ही चरित्र चित्रण हैं। उनके पात्र, समय की अवधि कितनी ही बीत जाए, लगता है कि आज भी हमारे आसपास घूम रहे हैं, केवल उस समय के परिवेश को आज के वातावरण से बदलना है।

भारतीय साहित्य विश्व के किसी भी देश की तुलना में कहीं से भी कम नहीं ठहरता लेकिन अभी उसकी वैश्विक पहचान नहीं बन पाई है। इसका कारण जो भी हो, उम्मीद तो यही है कि एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा जब भारतीय साहित्यकार होने का गौरव और एहसास विश्व में महसूस किया जा सकेगा।

साहित्य और फिल्म

साहित्यिक रचनाओं पर दुनिया भर के विभिन्न भाषाओं के लेखकों की रचनाओं पर हॉलीवुड और अन्य देशों में फिल्में बनती रही हैं और बहुत पॉपुलर भी हुई हैं। हमारे यहां भी साहित्यिक रचनाओं और साहित्यकारों के जीवन पर आधारित फिल्में बनती रही हैं लेकिन हमारे यहां सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि लेखक अपनी रचनाओं के पात्रों को वैसा ही फिल्म  में देखना चाहता है, जैसा कहानी या उपन्यास में दिखाया गया है। इसी कारण बहुत सी रचनाओं पर फिल्म निर्माता की इच्छा के बावजूद उस रचना पर काम नहीं हो पाता और फिल्म बनती भी है तो उसकी ज्यादा चर्चा नहीं होती । बेहतर यही होगा कि लेखक यह मानकर चले कि फिल्म एक अलग ही विधा है जिसमें उसका कोई दख़ल नहीं है। इसलिए उसे फिल्म का आनंद लेना चाहिए न कि यह देखकर दुःख अनुभव करे कि उसकी रचना के साथ न्याय नहीं हुआ । फिल्म पर टिप्पणी करने का अधिकार केवल दर्शकों का है।

रचना और उसका संसार

अक्सर ऐसा होता है कि जब किसी बात की तुलना करनी हो तो ऐसे में लेखकों की कभी लिखी गई किसी रचना या पुस्तक के किसी अंश का उदाहरण दिया जाता है। सदियों पुरानी लिखी किसी बात की मिसाल आज के समय में देना उस कृति को कालजयी बना देता है। कुछ की भाषा, वर्णन और कहने की कला इतनी आकर्षक और असरदार होती है कि उसके लिए वह भाषा भी पढ़ना जरूरी लगता है। इसी तरह की कुछ  किताबों में देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति और भूतनाथ हैं जिन्हें पढ़ने के लिए हिंदी सीखना अनिवार्य हो गया। इसी तरह मिर्ज़ा ग़ालिब और उनके समकालीन लेखकों को पढ़ने के लिए उर्दू सीखने की चाह बढ़ी। भाषाओं को सीखने की परंपरा को आगे बढ़ाते जाना भारतीय साहित्य की विशेषता है।

विभिन्न भाषाओं में लिखी जाने वाली पुस्तकें एक प्रकार से देश को एकसूत्र में बांधने का काम करती हैं। जिन प्रदेशों में इनकी रचना होती है, वहां के रहन सहन, रीति रिवाज, सोच का दायरा, कला और संस्कृति तथा ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी वहां रचे जाने वाले साहित्य से होती है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने जीवन में इतनी सारी भाषाएं पढ़ लिख सकना संभव नहीं है, फ़िर भी अनेक भाषी होना फायदेमंद है।

यहां इस बात का भी ज़िक्र किया जा सकता है कि भारतीय कॉपीराइट कानून लेखकों को उनकी कृति के अनधिकृत इस्तेमाल के विरुद्ध सुरक्षा देता है। इसमें पिछले कुछ वर्षों में अनेक बदलाव भी किए गए हैं जो लेखक की स्थिति मजबूत करते हैं परंतु अभी भी कॉपीराइट का उल्लंघन सामान्य बात है क्योंकि सब जानते हैं कि मामला अदालत में जाने पर फ़ैसला होने में पीढियां गुजर सकती हैं। इस मामले में भी यदि कोई ऐसी व्यवस्था हो जाए जो एक निश्चित अवधि में न्याय दिला सके तो यह साहित्य के क्षेत्र में एक उपलब्धि होगी।


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