शुक्रवार, 25 मार्च 2022

जल, वायु और पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा स्कूल से अनिवार्य हो

 

हर साल दुनिया भर में जल, वायु, मौसम, वातावरण के संरक्षण के नाम पर बहुत से दिन मनाए जाते हैं और उन्हें अगले ही दिन भुला दिया जाता है। हम भी लीपापोती करने के बाद भूल जाते हैं।

सच का सामना

वास्तविकता यह है कि भारत जल संकट के मुहाने पर खड़ा है जो कभी भी विस्फोटक हो सकता है, वायु प्रदूषण जानलेवा हो रहा है, जंगल कट रहे हैं, पहाड़ खिसक रहे हैं, धरती बंजर और मरुस्थली इलाके बढ़ रहे हैं।  शहर हो या देहात, यह सभी के लिए एक जैसा है, कोई इससे अछूता नहीं है।

सरकार जनता का सहयोग न मिलने की बात कर अपना पल्ला झाड़ लेती है। प्रश्न उठता है कि जनता सहयोग क्यों नहीं करती तो उसका जवाब यह है  कि उसे न तो पता है और न ही सिखाया गया कि इन सब चीजों को कैसे बचाकर रखा जाए और उसके लिए क्या वैज्ञानिक तरीके हैं ?

एक उदाहरण है: पानी सभी के लिए जरूरी है ; पीने और घरेलू इस्तेमाल के लिए, खेतीबाड़ी और उद्योग के लिए, सफाई और शौचालय के लिए, खेल कूद, स्विमिंग प्रतियोगिताओं और मनोरंजन के लिए तथा और भी न जाने किन किन बातों के लिए, मतलब यह कि खाने के बिना कुछ समय तक जिया जा सकता है लेकिन पानी न हो तो तत्काल मृत्यु निश्चित है।

अभी हाल ही में मुंबई में घटी एक घटना से बात आसानी से समझी जा सकती है। हुआ यह कि उपनगर अंधेरी में लोखंडवाला और उसके आसपास रहने वालों को अपने बाथरूम के पानी से बदबू आती महसूस हुई जो तेजी से बढ़ रही थी और फिर पूरे शहर से खबरें आने लगीं कि सभी सोसायटियों में यह समस्या है और साथ ही लोगों के बीमार होने की खबरें आने लगीं। पता चला कि सड़कों की मरम्मत कर रहे लोगों की लापरवाही से पीने के पानी और सीवेज के पानी की लाइनों में तोड़फोड़ होने से पाईप मिल गए और पूरे इलाके को दूषित पानी मिलने लगा। निवासी गंदे पानी से होने वाली बीमारियों की चपेट में आने लगे । लोगों ने एहतियात बरतनी शुरू की और पीने और खाना बनाने के लिए बाजार से बोतलबंद पानी ख़रीद कर इस्तेमाल करने लगे। जो लापरवाह रहे, उनकी जिंदगी संकट में पड़ गई। जो शहर स्वच्छ जल मुहैया कराने का दावा कर रहा था, उसकी पोल खुल गई।

यह समस्या एक शहर की नहीं बल्कि देश भर के शहरी क्षेत्रों की है जहां आए दिन लोगों की जिंदगी किसी न किसी खतरे में पड़ी रहती है, चाहे दूषित पानी हो, ज़हरीली हवा हो, बेमौसम बरसात हो या फ़िर टूटी फूटी सड़क, बेतरतीब परिवहन और जगह जगह फैलती गंदगी हो ।

अब हम देहाती इलाकों की बात करते हैं। वहां भी पानी के दूषित होने, वायु मंडल के प्रदूषित होने और अकाल, भुखमरी जैसे हालात बनते ही रहते हैं। यह एक सामाजिक समस्या भी बन जाती है और अनेक कुप्रथाओं का जन्म हो जाता है। उदाहरण के लिए पीने और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी लाने में महिलाओं का आधा दिन खराब हो जाता है तो कुछ इलाकों में लोगों ने पानी भरकर लाने के लिए एक शादी और करनी शुरू कर दी और इस तरह जल पत्नी रखने की शुरुआत हो गई।

व्यावहारिक बनना होगा

हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों में काफ़ी चीजें बदली हैं और ऐसे दावे भी किए जाते हैं जो केवल कागजों पर ही पूरे कर लिए जाते हैं। उदाहरण के लिए देश भर में पाईप लाईन के जरिए पानी उपलब्ध कराना ताकि लोग इसे भरकर लाने में वक्त लगाने के बजाए  दूसरे काम करें जिससे उनकी आमदनी बढ़े। यह कितना खोखला है, इसका पता सरकार की इस घोषणा से चल जाता है कि इस काम में दस से ज्यादा वर्ष लगने वाले हैं। समझा जा सकता है कि यह टालमटोल है और वह इसलिए कि कोई ठोस नीति नहीं है जिसके बल पर यह संभव हो सके।

शौचालय बना दिए लेकिन पुरानी तकनीक से बने थे, उनमें पानी का इस्तेमाल बहुत होने से बेकार हो गए, इसके साथ ही गंदगी की समस्या और खड़ी हो गई। आंकड़े बताते हैं कि बहुत तेज़ी से लोग फिर से खुले में शौच की आदत पर लौट रहे हैं जो एक खतरनाक संकेत है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सीवर और सीवेज डिस्पोजल का इंतजाम जहां हरेक गांव में होना चाहिए, वह जिलों तक में पर्याप्त मात्रा में नहीं है। जब देश में सड़कों का जाल बिछाया जा सकता है और उसके लिए नीति बन सकती है तो क्या इसी तर्ज़ पर ग्रामीण इलाकों और शहरों के स्लम क्षेत्रों में सीवरेज सिस्टम का जाल बिछाने के लिए नीति बनाकर काम नहीं किया जा सकता ?

विकसित और बहुत से विकासशील देशों में जाएं तो वहां बाथरूम तक का पानी पिया जा सकता है। क्या इसकी कल्पना भारत में की जा सकती है ? अभी तो फिलहाल नहीं क्योंकि हम जल प्रदूषण को रोकने का ही इंतजाम नहीं कर पा रहे हैं, पीने का साफ पानी देने की बात केवल गप है।

जन भागीदारी और शिक्षा

अब हम इस बात पर आते हैं कि सामान्य व्यक्ति कैसे इन सब चीजों से जुड़ सकता है और वह बिना सरकार का मुंह देखे किस प्रकार स्वयं हवा, पानी, मौसम और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को हल कर सकता है। जब हम अपनी बुनियादी जरूरतों को कुछ हद तक स्वयं पूरा करने की बात करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि जब हमें यह जानकारी नहीं है कि उसका तरीका क्या है तो सरकार को दोष देने के अतिरिक्त और क्या कर सकते हैं ?

सरकार ने नई शिक्षा नीति बनाई है और उसका प्रचार भी बहुत हुआ है लेकिन उस पर सही ढंग से चर्चा न होने से भ्रम की स्थिति बनी हुई है। जब तक यह तय न हो जाए कि विद्यार्थियों को क्या पढ़ाया जाए और उसकी रूपरेखा तैयार न हो, पाठ्यक्रम और पढ़ाने वाले न हों तो कैसे कोई शिक्षा नीति सफल हो सकती है और प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो सकता है।

हम केवल अक्षर ज्ञान या भाषा की पढ़ाई की बात नहीं कर रहे बल्कि आधुनिक ज्ञान विज्ञान का सहारा लेकर अपनी परेशानियों का हल स्वयं निकाल सकने की योग्यता होने की बात कर रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि बहुत से गैर ज़रूरी और केवल अंक हासिल करने की दृष्टि से पढ़ाए जा रहे विषयों को जब तक रद्दी की टोकरी में नहीं फेंक दिया जाता और जो विषय रोज़ाना की जिंदगी से जुड़े हैं उन्हें पढ़ाने का प्रबंध नहीं किया जाता तब तक किसी भी शिक्षा नीति का कोई मतलब ही नहीं है।

स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय तक की पढ़ाई में अगर हवा, पानी, मौसम परिवर्तन, पर्यावरण संरक्षण, वनों के महत्व, धरती, पहाड़, वर्षा, बाढ़ जैसे विषयों को प्राथमिक स्कूली शिक्षा से ही पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया जाए तो फिर बचपन से इन सभी बातों की जानकारी होगी और विद्यार्थी बड़े होने पर इन्हें अपनी सूझबूझ से हल कर लेगा। उसे पता होगा कि रेन हार्वेसिं्टग क्या होती है, कुएं, बावड़ी, झरने, तालाब का क्या मतलब है, ग्राउंड वाटर का स्तर कैसे बनाए रखा जा सकता है, प्राकृतिक रूप से कैसे शुद्ध पानी मिल सकता है और यही नहीं कल कारखानों से निकलने वाला पानी किस तरह के ट्रीटमेंट से उपयोगी बन सकता है। अगर वह उद्योग लगाता है या व्यापार करता है तो उसे किसी भी तरह का प्रदूषण न करने के उपायों को अमल में लाने से परहेज़ नहीं होगा।

इसी तरह वन संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण जैसे विषयों को पाठक्रम में शामिल कर उनकी बुनियादी शिक्षा दी जा सकती है। ये सभी विषय ऐसे हैं जिनसे रोज़गार तो मिल ही सकता है, साथ में व्यक्ति इनकी जानकारी होने से स्वयं अपनी समस्याओं का हल निकाल सकता है।

जब प्रत्येक व्यक्ति को इन सब बातों का ज्ञान स्कूल से ही हो जायेगा तो फ़िर सरकार और उसके अधिकारी न तो उसे बहका सकेंगे और न ही कोई बहाना बना सकेंगे। जो जन प्रतिनिधि हैं, विधायक, सांसद हैं, उन्हें विवश किया जा सकता है कि वे नीतियां बनाते और उन पर अमल करते समय  जनता की अनदेखी न करें क्योंकि वह उन्हें अपने ज्ञान की बदौलत कटघरे में खड़ा कर सकती है। तब यह कथन सही अर्थों में कहा जा सकेगा कि जनता सब कुछ जानती है।


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