शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

हिंदी का आम लोगों की भाषा बनना ही उसके विरोध का कारण है


एक बार फिर भाषा को लेकर आधुनिक संवाद के एक तरीके ट्विटर के जरिए मुंह जबानी लड़ाई छिड़ गई है जिसकी शुरूआत हिंदी अभिनेता अजय देवगन और कन्नड़ सुपरस्टार सुदीप ने जाने अनजाने में कर दी। अब यह राजनीतिज्ञों की दखलंदाजी से बहस का मुद्दा बन गया है। हिंदी को थोपने की पुरानी पड़ चुकी चाल को फिर से आजमाया जा रहा है ताकि विभिन्न भाषाभाषी आपस में लड़ें और नेता अपनी रोटियां सेंकने में सफल हों।

हिंदी का जलवा

हिंदी है कि सब भाषाओं को अपने में समाने या कहें कि कहीं से भी मिले किसी भी शब्द को अपनाने की अपनी सहज प्रवृत्ति के कारण इतनी आगे निकल चुकी है कि पुस्तक, नाटक, फिल्म या किसी भी विधा की कोई भी रचना जब तक हिंदी में देखने, सुनने, पढ़ने को न मिले तब तक उसे लोकप्रियता के पैमाने पर खरा नहीं माना जाता।

ऐसा होने की वजह यह है कि चाहे कोई कितना भी विरोध करे, हिंदी बोलने, समझने वाली आबादी हमारे देश में लगभग आधी है और बाकी में सब भाषाएं आती हैं। इसका मतलब यह नहीं कि अन्य भाषाएं कहीं से भी और किसी भी तरह से हिंदी से कम हैं, बल्कि देखा जाए तो उनमें रचा जा रहा साहित्य अपने अनूठेपन के कारण लोगों की पसंद बन रहा है। उदाहरण के लिए कन्नड़ लेखक भैरप्पा का उपन्यास पर्व और उड़िया की प्रतिभा राय की रचना द्रौपदी, महाभारत की पृष्ठभूमि पर लिखी अद्वितीय रचनाएं हैं।

इसी तरह और भी पुस्तकें हैं जो हिंदी में छपने के बाद ही देश भर में अपना लोहा मनवा सकीं। यह असमिया के जोगेश दास की पृथ्वी की पीड़ा हो, गुजराती के पन्ना लाल पटेल का जीवन एक नाटक हो। यह सूची बहुत लंबी है जो हमारी भाषाओं की विविधता और उनके लेखकों में कमाल की सृजन क्षमता दर्शाती है।

अब यह हिंदी की विशेषता है कि अन्य भाषाओं में बनी फिल्में और उनमें काम करने वाले कलाकार जब तक हिंदी पाठकों और दर्शकों को अपनी कला से रिझा नहीं लेते तब तक उनकी देशव्यापी पहचान अधूरी ही रहती है।

अपने साथ घटी एक घटना बताने का मन है। जैसा कि सब जानते हैं कि मैं अंग्रेजी लेखक खुशवंत सिंह के अंग्रेजी कॉलम का रूपांतर हिंदी में करता रहा हूं जो हिंदी के अनेक समाचार पत्रों में प्रकाशित होता था। हुआ यह कि पंजाब रत्न पुरस्कार देते समय तत्कालीन मुख्य मंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा कि वे सरदार खुशवंत सिंह को पंजाब केसरी में पढ़ते हैं और उनके प्रशंसक हैं। सरदार साहब बोले कि वे तो अंग्रेजी में लिखते हैं और उनका कॉलम हिंदी में मेरे द्वारा लिखा जाता है।

एक और घटना है। वर्तमान मुख्य मंत्री सरदार भगवंत सिंह मान का सीरियल जुगनू मस्त मस्त मैं प्रोड्यूस करता था जो हिंदी में इतना लोकप्रिय था कि दर्शक उसे देखने के लिए अपनी दिनचर्या इस प्रकार बनाते थे कि इसकी कोई भी कड़ी देखने से वे रह न जाएं।

कहने का मतलब यह है कि कोई भी भाषा राष्ट्र भाषा तब बनती है जब वह आम आदमी की बोलचाल की भाषा बन जाए और यह बात किसी भी भाषा के पाठक या रचनाकार मानते हैं कि यह हिंदी ही है जिसने अपने लचीलेपन के कारण यह मुकाम हासिल किया है। संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है तो उसे राष्ट्र भाषा लोगों ने बनाया है। यह स्वीकार कर लेने से किसी भी भाषा का महत्व कम नहीं होता बल्कि सभी भाषाएं एक दूसरे की सहचरी बनकर एक ही गुलदस्ते में सज कर रह सकती हैं।

आज जो मीडिया का विस्तार हो रहा है और टीवी, फिल्म, ओटीटी प्लेटफॉर्म तथा अन्य साधनों पर कॉन्टेंट की बाढ़ आई हुई है, उसे यदि हिंदी में न परोसा जाए तो वह न केवल सीमित दायरे में सिमट जायेगा बल्कि अच्छी कमाई भी न कर पायेगा। विदेशी कॉन्टेंट, फिल्मों और वेब सीरीज के लिए हिंदी में दिखाया जाना उनके लिए अनिवार्य है क्योंकि हिंदी मार्केट बहुत बड़ी है। इसी तरह भारतीय भाषाओं में बनी सामग्री का रूपांतर हिंदी में होने से वह लोगों की पसंद बन रहा है और कमाई की गारंटी है।

नेतागीरी से बचना होगा

हिंदी का जलवा इसी तरह तब तक बढ़ता रहेगा जब तक यह नेताओं और राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप से मुक्त रहता है। सभी भाषा भाषियों को यह भी समझना होगा कि जब भाषा, संस्कृति, बोलचाल, पहनावे, रीति रिवाज से लेकर हमारी सोच तक का राजनीतिकरण होने लगता है तो नफरत, मनमुटाव, लड़ाई झगड़े और भेदभाव की मानसिकता बनने में समय नहीं लगता।

यह बात इस लोक कथा से समझी जा सकती है। एक बार जंगल के राजा ने घोषणा कर दी कि सभी जानवरों को पेड़ पर चढ़ना सीखना होगा ताकि वे अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। जो नहीं सीख पाएगा, उसे फेल होने पर दण्ड मिलेगा। अब हुआ यह कि हाथी, ऊंट, जिराफ जैसे जीव कोशिश करने पर भी सफल न हुए और सजा के डर से जंगल छोड़कर जाने लगे जबकि बंदर पेड़ की चोटी तक पहुंचने लगा। वास्तविकता यह है कि हाथी अपनी सूंड से, ऊंट और जिराफ अपनी गर्दन से किसी भी पेड़ की चोटी तक पहुंच सकते हैं। यह बात जंगल के राजा ने समझी और अपना उटपटांग हुक्म वापिस लिया वरना जंगल खाली होने में देर नहीं लगती।

यही बात भाषाओं के मामले में भी सच है। प्रत्येक भाषा अपनी प्रकृति के अनुसार बढती रहती है, इसलिए नेताओं की बयानबाजी का विरोध कीजिए, उनकी चाल समझिए कि वे हिंदी को अहिंदी भाषियों पर थोपने की बात फैलाकर अपना कौन सा मतलब साध रहे हैं।

एक बात और है कि भारतीय भाषाओं को एक दूसरे का प्रतिद्वंदी बनाकर अंग्रेजी का प्रभुत्व हमेशा के लिए बनाए रखना नेताओं की गहरी चाल है जिसे समझना होगा। यह दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदरबांट जैसा है।

भाषा विवाद के कारण देश का बहुत नुकसान हो चुका, हिंसात्मक आंदोलन भी हुए हैं जिनमें जानमाल का बहुत नुकसान हुआ, डर लगता है कि कहीं फिर से कोई ऐसा उपद्रव न हो जाए कि देश एक बार फिर बहुत पीछे चला जाए। छोटी सी चिंगारी भाषाई एकता को लील सकती है, इसलिए समाज और सरकार दोनों ही की जिम्मेदारी है कि भाषा के नाम पर कोई भी विवाद बढ़ने से पहले उसे बुझा दिया जाए।

भाषा क्या है, केवल अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है और हमारे देश में तो उन्नीस हजार से ज्यादा हैं और कुछ के बोलने, समझने वाले कुछ सैंकड़ों में है लेकिन अगर कोई यह कहे कि उनकी क्या गिनती करनी तो यह ऐसी भूल है जो भाषाई आधार पर उस क्षेत्र की विरासत को खत्म कर सकती है या किसी अंधेरे कोने में डाल सकती है।

हिंदी भारतीय साहित्य की अग्रणी है और हिंदुस्तानी विश्व में व्यापार की भाषा बनती जा रही है। तमिल और संस्कृत दुनिया की सबसे पुरानी भाषाएं हैं तो कन्नड़ भाषाओं की रानी है, तेलुगु सबसे लोकप्रिय है, इसी तरह बाकी भाषाएं भी किसी न किसी रूप में भारतीयता से दुनिया को परिचित कराती हैं। इस स्थिति में भाषा के नाम पर लड़ना राजनीतिज्ञों के अलावा किसी को शोभा नहीं देता। उन्हें आपस में लड़ने दीजिए और जब आम आदमी उनका साथ साथ नहीं देगा तो वे अपनी ओछी राजनीति से ऊपर उठकर सोचेंगे।

अलग अलग भाषाओं की सामग्री हिंदी में और हिंदी की सामग्री उन भाषाओं में प्रस्तुत करने से ही हमारी सभी भाषाएं समृद्ध होंगी। हो सकता है इस क्रम में कोई ऐसी नई भाषा ही पनपने लगे जिसमें सभी भाषाओं के शब्द समाहित हों। हो सकता है कि इसे लिखने के लिए उसी तरह रोमन लिपि का इस्तेमाल हो जैसे आज देवनागरी के स्थान पर रोमन लिपि का प्रयोग किया जाता है। उम्मीद है कि भाषाई उन्माद न बढ़े और भाषाई एकता के सामने कोई चाल कामयाब न हो।


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