शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

अभियान शुरू तब हों जब उनके पूरे होने का प्रबंध हो

 

कह सकते हैं कि हमारी सरकार घोषणाएं करने में महारथी और संकल्प लेने और तरह तरह के अभियान शुरू करने के मामले में सब से आगे है। अब यह और बात है कि इनके पूरे होने का जिम्मा कोई नहीं लेता, इसलिए ये सभी वक्त की धूल पड़ने से कुछ समय बाद दिखाई भी नहीं देते और न केवल भुला दिए जाते हैं बल्कि अगर कोई याद दिलाए तो एक नया अभियान आगे कर दिया जाता है।

हम अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं जो गर्व करने और राष्ट्र प्रेम की ज्वाला हृदय में धधकते रहने की भांति है। प्रत्येक देशवासी अपने घर में अपनी राष्ट्रीय पहचान स्वरूप राष्ट्र ध्वज तिरंगा फहराए, यह इस स्वतंत्रता दिवस का संकल्प है। याद आता है कि कभी केवल सरकारी भवनों और राष्ट्रीय समारोहों में अपना झंडा फहराने की परंपरा या इजाजत थी, भला हो कि अदालती कार्यवाही के बाद अब हर भारतवासी कभी भी कहीं भी तिरंगा फहरा सकता है। हालांकि इसके बनाने से लेकर इस्तेमाल, रखरखाव और सुरक्षित रखने के लिए नियम हैं लेकिन अधिकतर लोग जानकारी के अभाव में इसके उपयोग के बाद इसकी तरफ से लापरवाह हो जाते हैं। उम्मीद है कि इस बारे में भी हर घर तिरंगा अभियान में सरल भाषा में जो नियम हैं उनका बड़े पैमाने पर प्रचार प्रसार किया जाएगा।


अभियानों की बाढ़

चार फरवरी 1916 की बात है जब महात्मा गांधी वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर और उसके आसपास फैली गंदगी, कीचड़, पान की पीक देखकर बहुत विचलित हुए और वहां रहने वालों की जबरदस्त भर्त्सना की थी। विडंबना यह है कि लगभग एक सदी तक हम कमोबेश पूरे देश में इसी तरह रहते रहे , यद्यपि गाहे बगाहे सफाई व्यवस्था में सुधार के लिए कोशिशें चलती रहीं लेकिन देशव्यापी अभियान के रूप में भारत के गांवों, कस्बों और शहरों को स्वच्छता का पाठ पढ़ाने की शुरुआत 2014 में बापू के जन्मदिन से हुई।

इसमें कोई संदेह नहीं कि यह खुले में शौच करने के खिलाफ और हर घर में टॉयलेट के इस्तेमाल, रास्तों पर जन सुविधाओं के निर्माण और नागरिकों के मन में सफाई से रहने और इस बारे में अपनी सोच बदलने के बारे में एक ऐसा अभियान था जिसका पूरा होना देश के प्रत्येक नागरिक के भले के लिए आवश्यक था।

कह सकते हैं कि इस दिशा में काफी हद तक सफलता मिली है लेकिन पिछले कुछ समय से इस तरह की खबरें मिल रही हैं कि लोग अपने पुराने ढर्रे पर लौट रहे हैं। इसकी वजह यह नहीं कि सफाई से रहने के प्रति आकर्षण कम हो गया है बल्कि यह है कि सीवर लाईन बिछाने, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट न लगने और देहात हो या शहर, गंदगी भरे नालों से मुक्ति न मिलने तथा सबसे बड़ी बात यह कि वैज्ञानिक ढंग और देश में ही विकसित टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल में कोताही के कारण लोगों में निराशा बढ़ रही है।

हमारा मतलब व्यर्थ की आलोचना करना नहीं बल्कि यह है कि अटल जी की सरकार में जो निर्मल भारत अभियान शुरू हुआ था, उसकी खामियों और असफल रहने के कारणों को नजरंदाज न करते हुए स्वच्छ भारत अभियान चलाया जाता तो उसके नतीजे कुछ और ही होते। सीवेज डिस्पोजल की सही व्यवस्था न तब थी और न अब है। टॉयलेट में पानी की जरूरत के बारे में पहले भी ध्यान नहीं दिया गया और न अब, केवल शौचालय बनाना ही काफी नहीं, उसके लिए घर के बाहर गंदगी जमा न होने देने के लिए नालियों का इंतजाम और उनकी निरंतर सफाई होने और गंदगी का ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुंचने की व्यवस्था भी आवश्यक है।

कुछ साल पहले बड़े जोरशोर से स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम शुरू किया गया था, उसकी नियति क्या हुई, किसी से छिपा नहीं और यह सरकार की विफलता का एक बदनुमा प्रमाण बन गया। अब तो इसकी कोई बात ही नहीं करता जबकि बेरोजगारी दूर करने में यह गेमचेंजर बन सकता था।

इसी तरह स्वस्थ भारत अभियान चलाया गया जो बिना इस बारे में कोई प्रबंध किए शुरू हो गया जिसमें हमारे देश में ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की खराब हालत को पहले सुधारना और व्यवस्थित करना आवश्यक था। अभी भी यहां डॉक्टर नहीं जाते, गर्भावस्था और प्रसव के बाद देखभाल नहीं होती, पौष्टिक खुराक का मिलना तो दूर, तुरंत मजदूरी करने जाने की मजबूरी है, बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर ही इन इलाकों में नहीं है तो ग्रामीण भारत कैसे स्वस्थ रह सकता है।

इसी कड़ी में जन आरोग्य और जन स्वास्थ्य अभियान चलाए गए जिनका कोई अतापता नहीं है। केवल मुफ्त इलाज की सुविधा से सेहतमंद नहीं रहा जा सकता, उसके लिए बड़े पैमाने पर अस्पताल, डिस्पेंसरी, डॉक्टर, नर्स और अन्य स्टाफ चाहिए जिसकी कितनी कमी है, यह बताने की न तो जरूरत है और न ही कोई आंकड़े देने की क्योंकि सरकारी खानापूर्ति के लिए जाली और भ्रामक दस्तावेज तैयार करने में सभी सरकारों को महारत हासिल है।

देश में शिक्षा को लेकर अक्सर चिंता प्रकट की जाती है लेकिन इसके लिए बजट में इजाफा करने के बजाय हर साल कटौती कर दी जाती है। स्कूलों की दशा सुधारने का काम शहरों में होता है, देहात में उनके बनने, खुलने और विद्यार्थियों के पढ़ने जाने का निर्णय सरपंच, मास्टर और दबंग नेता करते हैं। इसका प्रमाण यह है कि विषय कोई भी हो, विद्यार्थी के लिए उसकी जानकारी होना जरूरी न होकर केवल पास होकर अगली कक्षा में पढ़ने जाना है। अध्यापकों और पढ़ने वालों के ज्ञान के नमूने अक्सर सुर्खियों में रहते हैं।

अक्सर आपसी बातचीत और नेताओं के भाषणों में पर्यावरण संरक्षण मतलब प्राकृतिक साधनों जैसे वायु, जल, जंगल, जमीन, नदी, पर्वत, पशु, जीव जंतुओं और जीवन के लिए आवश्यक सामग्री को बचाए रखने के महत्व का जिक्र सुनने में आता रहता है। इसमें गंभीरता इसलिए नहीं होती क्योंकि यदि इन सभी चीजों के अनावश्यक इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई तो इससे सरकार, नेता और अधिकारियों के व्यक्तिगत स्वार्थ पूरे होने के रास्ते में रूकावट आ जायेगी।

प्रति वर्ष जो यह देश भर में नदियों में उफान, बाढ़ का तांडव और जन तथा धन की हानि होती है या फिर सूखे के कारण भयंकर बर्बादी होती है, रेगिस्तान का फैलाव होता है, तो क्या इसे रोकने के लिए सरकार के पास संसाधनों का अभाव है, नहीं ऐसा कतई नहीं है, बल्कि सच यह है कि यह सब जिन्हें हम अक्सर प्राकृतिक आपदा या कुदरत का कहर कह कर बचने की कोशिश करते हैं, यह एक साजिश की तरह है जिसमें अधिकारी, स्थानीय नेता से लेकर राज्य और केंद्र सरकार के मंत्री, सभी शामिल हैं।

अगर यह सब हर साल न हो तो फिर बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि और संपत्ति के नष्ट होने के ऐवज में राहत के नाम पर धन की हेराफेरी करने पर अंकुश लग सकता है जो किसी को मंजूर नहीं है।

यह सब समझना कि ज्यादातर अभियान जनता के हित के लिए नहीं, कुछ मुठ्ठी भर लोगों की स्वार्थपूर्ति के लिए चलाए जाते हैं, कोई टेढ़ी खीर नहीं है बल्कि आसानी से समझ में आ जाने वाली साधारण सी बात है। इसलिए क्या यह जरूरी नहीं लगता कि जब भी कोई अभियान शुरू करने की घोषणा हो, जनता की तरफ से तर्क के आधार पर उसकी समीक्षा के बाद उसका समर्थन या विरोध करने की आदत डालना देशवासियों के लिए आवश्यक है?


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