शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

साहित्य, विज्ञान तथा फिल्म सामाजिक बदलाव की कड़ियां हैं


यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है कि साहित्य ने समाज पर असर डाला है या फिल्मों से सामाजिक परिवर्तन हुआ। इसी कड़ी में यह भी जोड़ा जा सकता है कि वैज्ञानिकों को कुछ नया अविष्कार करने में साहित्यिक लेखन ने प्रेरित किया या किसी गूढ़ रहस्य की कल्पना को साकार करने के लिए की गई खोज को वैज्ञानिक उपलब्धि का नाम दिया गया। 


साहित्य और विज्ञान का संबंध

एक उदाहरण है। मैरी शैली ने फ्रैंकेंस्टेन की रचना की जिसमें मनुष्य के अंग प्रत्यारोपण यानि ऑर्गन ट्रांसप्लांटेशन का जिक्र किया। वैज्ञानिकों द्वारा एक साहित्यकार की रचना से प्रेरित होकर ही यह संभव हुआ, इसे स्वीकार करना होगा। इसी प्रकार साहित्यिक रचनाओं में यह बात बहुत मजेदार और रहस्य की तरह से की गई कि हमारे सभी काम हमारी ही तरह कोई और बिना हाड़ मांस का पुतला कर रहा है। यह मानने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि इससे आधुनिक रोबोट का अविष्कार हुआ। जासूसी साहित्य में बहुत से ऐसे चरित्र मिलते हैं जो अपनी सूरत बदलते रहते हैं, ऐयारी से इस प्रकार अपना मेकअप करते हैं कि एकदम बदल जाते हैं तो इसे भी विज्ञान ने वास्तविकता बना दिया।

साहित्य में संचार साधनों की कल्पना बहुत पहले कर ली गई थी। तेज गति से चलने वाले आने जाने के संसाधनों के बारे में भी काल्पनिक उड़ान लेखक भर चुके थे।  धरती, समुद्र और आकाश में होने वाले परिवर्तनों को साहित्य में उकेरा जा चुका था। आज इन क्षेत्रों में जो अविष्कार हो रहे हैं, उन पर साहित्य के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता।

साहित्य लेखन चाहे किसी भी विधा में हो, कविता, कहानी, उपन्यास या कुछ भी हो सकता है, उनमें जो श्रेष्ठ और ऐसी रचनाएं हैं जिन पर समय भी अपना असर नहीं दिखा पाया और जिन्हें शाश्वत कहा गया, उनके हमेशा ही प्रासंगिक बने रहने का एकमात्र कारण यह है कि उनमें भविष्य में झांकने का प्रयास था। विज्ञान भी तो यही करता है, वह भी इसी आधार पर चलता है कि आगे क्या होगा या क्या ऐसा भी हो सकता है ?


यह एक सच्चाई है कि सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन की नींव साहित्य से ही पड़ती है। सामान्य व्यक्ति जो सोचता है, लेखक उसे शब्दों में व्यक्त करता है। आपने देखा होगा कि कैसा भी अवसर या मंच हो, वह चाहे राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या फिर खेल कूद का ही क्यों न हो, अक्सर उनकी शुरुआत किसी लेखक की लिखी हुई बात से की जाती है। इसका मतलब यही है कि अपनी बात को सिद्ध करने में भी साहित्यिक रचनाओं की शरण में जाना पड़ता है।

साहित्य केवल कल्पना नहीं है बल्कि ऐसा दर्पण है जिसमें झांका जाए तो पाठक को उसमें अपनी छवि दिखाई देने लगती है। यही कारण है कि कोई रचना पढ़ते समय मन में गुदगुदी, चेहरे पर हंसी या आंखों से आंसू निकल पड़ते हैं। लेखन की कसौटी भी यही है कि उससे आप अपने को अलग न कर पा रहे हों और उसका प्रभाव स्थाई रूप से मन में बैठ गया हो।


साहित्य और फिल्म

हमारे देश में साहित्यिक रचनाओं पर फिल्म बनाने का काम बहुत कम हुआ है लेकिन जितना भी हुआ, वह निर्माता के लिए घाटे का सौदा नहीं रहा। एक चादर मैली सी, पिंजर, तीसरी कसम, आंधी, ट्रेन टु पाकिस्तान तथा और भी बहुत से उदाहरण हैं। साहित्यकारों के जीवन पर फिल्म या बायोपिक बनाने का काम तो लगभग न के बराबर ही हुआ है।

इसका कारण यह है कि फिल्म बनाना और उससे कमाई करना मुहावरे की भाषा में कहा जाए तो बच्चों का खेल नहीं है। यह सब जानते हुए भी यदि कोई निर्माता निर्देशक किसी साहित्यिक रचना पर फिल्म बनाने के बारे में आगे आता भी है तो हमारे यहां लेखक चाहता है कि उसकी रचना के साथ न्याय हो, मतलब यह कि जो उसने लिखा वह वैसा ही पर्दे पर नजर आए। यह प्रैक्टिकल नहीं होता क्योंकि फिल्म बनाते समय सिनेमेटिक लिबर्टी लेना अनिवार्य है वरना दर्शक उसे देखने नहीं आयेंगे।

इसका एक ही उपाय है कि फिल्म बनाने की सहमति देने के बाद लेखक को यह मानकर अलग हो जाना चाहिए कि अब यह उसकी नहीं निर्माता की रचना होगी और इसमें उसकी दखलंदाजी नहीं हो सकती। जिस प्रकार उसकी कृति को पाठकों की प्रतिक्रिया मिली, उसी प्रकार फिल्म के दर्शकों की राय और नजरिया उसके निर्देशक के बारे में होगा न कि उस साहित्यकार के बारे में जिसकी पुस्तक पर उसका निर्माण हुआ है।

इसका कारण यह है कि पूरे उपन्यास या कहानी के सभी पात्रों और विवरणों को फिल्म में शामिल करना संभव नहीं है और केवल कुछेक पक्षों और किरदारों को लेकर ही फिल्म बनाई जाती है। इसलिए क्या छोड़ा, क्या शामिल किया, इसके पचड़े में न पड़कर फिल्म को एक नई रचना की तरह उसका आनंद लेने की मनस्थिति उसके लेखक को रखनी होगी। ऐसा होने पर ही हमारे देश में वह दौर आ सकता है जिसमें साहित्य पर बनने वाली फिल्म की कद्र उन फिल्मों से अधिक होने लगेगी जो बिना किसी थीम के, बस मनोरंजन और वक्त बिताने के लिए बनाई जाती हैं।

इसी प्रकार विज्ञान और उसकी उपलब्धियों तथा वैज्ञानिकों पर फिल्म निर्माण काफी चर्चित और सफल रहा है। रा वन, कोई मिल गया, कृष, मिस्टर इंडिया जैसी फिल्मों से लेकर मिशन मंगल और रॉकेट्री तक विज्ञान फिल्में अपना जलवा दिखा चुकी हैं।


विज्ञान प्रसार

यहां भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के संस्थान विज्ञान प्रसार का जिक्र करना आवश्यक है जो प्रति वर्ष देश के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विज्ञान फिल्म महोत्सव आयोजित करता रहा है। इसी के साथ इंडिया साइंस चैनल एक ऐसी उपलब्धि है जो देश में ओटीटी प्लेटफॉर्म को एक नई दिशा देने में सफल रही है। इस फेस्टीवल में विज्ञान और तकनीक से संबंधित वे सभी फिल्म प्रदर्शित और पुरस्कृत की जाती हैं जिनका संबंध सामान्य नागरिक पर पड़ने वाले व्यापक प्रभाव से है। वैज्ञानिक उपलब्धियों को हासिल करने में जो समय, धन, परिश्रम और ऊर्जा लगी, अक्सर उसका जिक्र नहीं होता, इसलिए इस तरह की फिल्मों का प्रदर्शन जरूरी है जिनमें किसी ख़ोज या अनुसंधान का प्रोसेस विस्तार से बताया गया हो।

विज्ञान महोत्सव इस बात को दर्शकों तक ले जाने का प्रयास है जिससे साधारण व्यक्ति समझ सके कि उसके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में जो बदलाव आ रहे हैं, उनका आधार विज्ञान और टेक्नोलॉजी है। ये सभी फिल्में इंडिया साइंस चैनल पर देखी जा सकती हैं। अंधविश्वास, दकियानूसी विचारों और सड़ी गली परंपराओं से मुक्ति पानी है तो उसके लिए अपनी सोच को बदलना ही होगा। इस चैनल पर दिखाई जाने वाली फिल्में दर्शक के सामने एक नई दुनिया का निर्माण करते हुए दिखाई देती हैं।

उम्मीद की जानी चाहिए कि साहित्य और विज्ञान का स्थान फिल्म निर्माण में महत्वपूर्ण समझा जायेगा। इसका कारण यह है कि अब पुस्तकों के पाठक हों या फिल्मों के दर्शक, उनकी रुचि तेजी से बदल रही है। उन्हें मनोरंजन के साथ कुछ ऐसा चाहिए जिसे वह पुस्तक पढ़ने या फिल्म देखने के बाद अपने मन के किसी कोने में संजो कर रख सकें।


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