शनिवार, 1 अप्रैल 2023

धूल मिट्टी फाँकना, गंदला पानी, जहरीली हवा, कानफोड़ू शोर और रेतीला-अधपका भोजन, क्या यही औद्योगिक विकास है?

आजादी के अमृत काल में भी ऐसा लगता है कि देशवासी ऐसे युग में जी रहे हैं जहां रेत, राख, आँधी, धूल के बवंडर जहां भी जाओ, उठते ही रहते हैं। आसपास नदी हो तो उसमें नहाना तो दूर उसका पानी पीने से भी डर लगता है। खुली हवा में सांस लेने का मन करे तो धुएँ से दम घुटता सा महसूस होता है और आराम से कुछ खाने की इच्छा हो तो मुँह में अन्न के साथ रेतीला स्वाद आए बिना नहीं रहता।


औद्योगिक विनाशलीला

यह स्थिति किसी एक प्रदेश की नहीं बल्कि पूरे भारत की है जहां उद्योग स्थापित हैं और जिनकी संख्या दिन दूनी रात चैगुनी गति से बढ़ रही है। अब क्योंकि हम औद्योगिक उत्पादन में विश्व का सिरमौर बनना चाहते हैं तो इसके लिए किसी भी चीज की बलि दी जा सकती है, चाहे सेहत या सुरक्षा हो, खानपान या रहन सहन हो !

मजे की बात यह है कि इन सब के लिए भारी भरकम नियम, कानून-कायदे हैं जिन्हें पढ़ने, देखने और समझने की जरूरत तब पड़ती है जब कोई हादसा हो जाता है और धन संपत्ति नष्ट होती है तथा बड़ी संख्या में लोगों की जान चली जाती है। उसके बाद लंबी अदालती कार्यवाही और मुआवजे का दौर चलता है। कुछ बदलता नहीं बल्कि इंसानियत को ठेंगा दिखाते हुए औद्योगिक विकास के नाम पर शोषण, अत्याचार और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन चलता रहता है।


एक अनुभव

वैसे तो लेखन और फिल्म निर्माण के अपने व्यवसाय के कारण अक्सर दूर दराज से लेकर गाँव देहात, नगरों और महानगरों और बहुत प्रचारित स्मार्ट शहरों में आना जाना होता रहता है लेकिन इस बार जो अनुभव हुआ उसे पाठकों के साथ बाँटने से यह उम्मीद है कि शायद सरकार और प्रशासन की नींद खुल सके।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा से जुड़ा एक क्षेत्र है जिसमें सिंगरौली, रॉबर्ट्सगंज, शक्ति नगर और समीपवर्ती इलाके आते हैं। यहाँ पहुँचने के लिए वाराणसी से सड़क मार्ग से जाना था। हालाँकि इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में सड़कों की हालत में बहुत सुधार हुआ है, पक्की सड़कें बनी हैं, हाईवे पहले से ज्यादा सुविधाजनक है, लेकिन कुछ स्थानों पर जबरदस्त जाम और अनियंत्रित ट्रैफिक से भी जूझना पड़ता है।

यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से मालामाल है और यहाँ खनिज संपदा की बहुतायत है। जंगल का क्षेत्र भी है जहां कभी लूटपाट से लेकर हत्या तक होने का डर लगा रहता था। सुनसान इलाकों से सही सलामत गुजरना कठिन हुआ करता था लेकिन अब हालत में काफी सुधार है। इस पूरे क्षेत्र में औद्योगिक गतिविधियों के कारण बहुत कुछ बदला है, नई बस्तियाँ बसी हैं, टाउनशिप का निर्माण हुआ है और जरूरी सुविधाओं का विकास हुआ है।

उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में सरकारी और निजी औद्योगिक संस्थान लगाना फायदे का सौदा रहा है और इसी के साथ गैर कानूनी माइनिंग और तस्करी उद्योग भी बहुत तेजी से पनपा है। माफिया गिरोह चाहे वन प्रदेश हो या मैदानी, सभी जगह सक्रिय हैं। इनके साथ सरकारी कारिंदों और यहाँ तक कि पुलिस की मिलीभगत के किस्से आम हैं।

उदाहरण के लिए स्टोन क्रशर अनधिकृत रूप से कब्जाई जमीन पर धड़ल्ले से चल रहे हैं। पत्थरों की कटाई और पिसाई से निकला रेत इनकी कमाई का बहुत वड़ा साधन है।

अब इसका दूसरा पक्ष देखिए।आप सड़क से जा रहे हैं, अचानक ऊपर कुछ धुँध और बादलों के घिरने का सा एहसास होता है और गाड़ी के शीशे खोलकर या बाहर निकलकर ताजी हवा में सांस लेनी चाही तो ऐसा लगा कि दम घुट जाएगा। क्रशरों से निकलता शोर कान के पर्दे फाड़ सकने की ताकत रखता है। नाक की गंध और मुँह का स्वाद धूल मिट्टी और रेत फाँकने जैसा हो जाता है। रेत की तेज बौछार का भी सामना करना पड़ सकता है और पहने कपड़े झाड़ने पड़ सकते हैं।

अनुमान लगाइए कि ऐसे में जो मजदूर और दूसरे लोग यहाँ काम करने आते हैं, उनका क्या हाल होता होगा? पूछने पर पता चला कि यह इलाका घोर गरीबी के चंगुल में है और गाँव के गाँव वीरान होते जा रहे हैं। बंधुआँ मजदूरी की प्रथा देखनी हो तो यहाँ मिल सकती है। यही नहीं लोगों की जीने की इच्छा नहीं रही क्योंकि तरह तरह की बीमारियों से ये लोग घिरे रहते हैं।

कमाल की बात यह है कि जो मालिक है वह दनादन अमीर होता जाता है क्योंकि कानूनन हो या अवैध, खनन में मुनाफा बहुत है।

चलिए आगे बढ़ते हैं। सड़क के दोनों ओर दूर से देखने पर पहाड़ियों का भ्रम होता है। जानकारी मिलती है कि ये रेत और मिट्टी के विशाल टीले हैं जो समय गुजरने के साथ प्रतिदिन ऊँचे होते जाते हैं। जब हवा चलती है तो यह उड़ कर आसपास की बस्तियों के घरों में घुस जाते हैं और मुँह तथा चेहरे का रंग बिगाड़ने के साथ खाने का स्वाद भी कसैला और किरकिरा कर देते हैं।

यहाँ कोयले से बिजली पैदा करने वाले थर्मल पॉवर प्लांट हैं। घरों को रौशनी से नहलाने के साथ साथ इनसे निकलने वाला धुआँ और राख लोगों की जिंदगी कम करने में एक विशाल दैत्य की भूमिका निभा रहा है। डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, लगातार रहने वाली खांसी और बुखार यहाँ के निवासियों की दिनचर्या का अंग बन चुके हैं।

जरा अंदाजा लगाइये कि जिस जबरदस्त शोर में आपको क्षण भर खड़े होने के लिए कानों में ईयर बड्स लगाने पड़ सकते हैं, उसमें यहाँ काम करने वालों को सुरक्षा साधनों के इस्तेमाल किए बिना या बहुत कम पालन करते हुए देखना आम बात है। आप कितना भी एयर कंडीशंड माहौल में रहिए, सामान्य कार्यों के लिए खुली जगह में आना ही पड़ता है। तब यहाँ काम करने और रहने वालों के लिए जीवन किसी अभिशाप से कम नहीं लगता।

नौजरीपेशा अपना ट्रांसफर करा सकते हैं लेकिन स्थानीय आबादी कहाँ जाए, उसे तो यहीं रहना और जीना मरना है। स्वास्थ्य सुविधाएँ इतनी नाकाफी हैं कि स्त्रियों को प्रसव के लिए दो तीन सौ किलोमीटर दूर वाराणसी और अन्य शहरों में रेफर कर दिया जाता है। यदि सरकारी और निजी संस्थानों द्वारा अपने कर्मचारियों के लिए बनाई गई टाउनशिप में अस्पताल और डिस्पेंसरी तथा दवाईयों की सुविधा पूरे क्षेत्रवासियों के लिए न हो तो लोग कैसे जिंदा रहेंगे, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है।


क्या किया जा सकता है ?

औद्योगिक विकास की गति को कम करना देश की अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह हो सकता है लेकिन कुछ ऐसे उपाय तो किए ही जा सकते हैं जिनसे जीवन पर विनाशकारी प्रभाव कम से कम पड़े। इन उपायों में सबसे पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूलन के अंतर्गत बने नियमों और आदेशों का कड़ाई से पालन अनिवार्य है। वैसे यह भी एक वास्तविकता है कि इस ट्रिब्यूनल की अनदेखी अधिकतर सरकारी उपक्रमों द्वारा ही की जाती है। जो प्राइवेट उद्योग् हैं, उनके लिए तो यह बेकार का बखेड़ा है और उनके पास किसी भी नियम को अपने पक्ष में करने की असीम ताकत है, चाहे वह धन की हो या बाहुबल की।

उदाहरण के लिए जब यह तय है कि हैजार्डस यानी स्वास्थ्य और सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक उद्योग घनी आबादी के इलाकों में लग ही नहीं सकते तो फिर रिहायशी इलाकों में क्यों इनकी भरमार है ? इसके साथ ही जब नियम है कि सेफ्टी प्रावधानों के तहत किसी भी कर्मचारी, कामगारों और लोकल सप्लायरों का जरूरी सुरक्षा साधनों से लैस होकर आये बिना काम पर नहीं आया जा सकता तो फिर कदम कदम पर इनकी अनदेखी क्यों देखने को मिलती है ?

इससे भी ज्यादा जरूरी बात कि जब हमारे वैज्ञानिक संस्थानों ने आधुनिक टेक्नोलॉजी विकसित कर ली है तो उनका इस्तेमाल इन संस्थानों द्वारा क्यों नहीं किया जाता ताकि जल और वायु प्रदूषण के खतरों को कम किया जा सके ?

यह विवरण तो एक बानगी है और देश के अन्य प्रदेशों में औद्योगिक विकास के विनाशकारी पक्ष को समझने के लिए काफी है। एक बात और कि इन इलाकों से अपना काम कर लौटने के बाद कई दिन तक बीमार रहना पड़ सकता है। खांसी और बलगम तथा बुखार और दस्त की शिकायत कई दिन तक रह सकती है। क्या इन सभी औद्योगिक क्षेत्रों में रहने वाले करोड़ों लोगों के जीवन से खिलवाड़ किए जाने पर कोई रोक लग सकती है? जरा सोचिए!


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