शनिवार, 8 अप्रैल 2023

न्याय सस्ता हो या महँगा, देर से मिला केवल सजावटी होता है

 देश की एक विख्यात संस्था टाटा ट्रस्ट पिछले कुछ वर्षों से भारत की न्याय व्यवस्था को लेकर एक रिपोर्ट जारी करती है जिसे तैयार करने में अनेक जानी मानी संस्थाएँ और न्यायिक विषयों के जानकार शामिल रहते हैं। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के रूप में यह दस्तावेज़ सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है। 2022 की रिपोर्ट हाल ही में आई है। इसमें कुछ ऐसे तथ्य और वास्तविकताएँ हैं जिन पर सामान्य व्यक्ति का ध्यान जाना ज़रूरी है क्योंकि इनका स्वरूप केवल ऐकडेमिक न होकर जन साधारण के चिंतन मनन के लिए भी है।


न्याय की प्रक्रिया

न्याय के चार अंग कहे गए हैं ; पुलिस, अदालत, जेल और क़ानूनी सहायता। इन पर ही पूरी न्याय व्यवस्था टिकी हुई है इसलिए इन्हें स्तंभ कहा गया है। इसका मतलब यह हुआ कि इनकी मज़बूती या कमज़ोरी पर ही इंसाफ़ का पूरा दारोमदार है। रिपोर्ट के अनुसार देश के जिन राज्यों में क़ानून का राज पूरी शिद्दत से चल रहा है, उनमें कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना, गुजरात और आंध्र प्रदेश पहले पाँच बड़े राज्य हैं। उत्तर प्रदेश का हाल यह है कि सबसे नीचे अठारहवें स्थान पर है। एक करोड़ से कम आबादी वाले राज्यों में सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा पहले तीन और गोवा सातवें स्थान पर है।

यह तो बात हुई आँकड़ों की लेकिन सच्चाई यह है कि यदि समय पर न्याय न मिले तो वह कमरे में टंगे दिखावटी मेडल से ज़्यादा कुछ नहीं क्योंकि देर से मिलने पर उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति ने अपनी नौकरी में हुए अन्याय के ख़िलाफ़ तीस साल की उम्र में न्याय से गुहार लगाई और निर्णय आया तब जब वह 58 वर्ष का हो गया और उसके लिए तब मिल जाने वाली नौकरी का आज मिलने का कोई मतलब नहीं रहा।

हमारी जेलों में यदि एक व्यक्ति सज़ा पाया हुआ है तो उसके साथ दो अंडर ट्रायल हैं जो एक दो नहीं दसियों साल से अपने ऊपर लगे आरोपों की सुनवाई शुरू होने का इंतज़ार करते हुए जेल को ही अपना घर मान चुके हैं। तीन चौथाई से ज़्यादा क़ैदी इसी गिनती में आते हैं। क़ैद में रखने का खर्च बीस से पैंतीस हज़ार सालाना है और साढ़े पाँच लाख क़ैदी हैं तो सवा चार लाख अंडर ट्रायल हैं। अनुमान लगा लीजिए कितना धन व्यर्थ बर्बाद हो रहा है।

सुधार, पुनर्वास और प्रशिक्षण

हमारी न्याय व्यवस्था में क़ैदियों को सुधारने और उन्हें जेल से छूटने पर कोई काम करने लायक़ बनाने की बात कही गई है। उल्लेखनीय है कि आधी से अधिक जेलों में ऐसे लोगों की नियुक्ति ही नहीं है जो क़ैदियों को प्रशिक्षण दे सकें।

एक और मज़ेदार बात यह है कि पुलिस में भर्ती हुए सिपाहियों से लेकर वरिष्ठ पदों पर काम करने वाले अधिकारियों में नब्बे प्रतिशत बिना किसी ट्रेनिंग के अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। एक चौथाई थानों में न तो सीसीटीवी है और न ही महिला डेस्क, फ़र्नीचर की बात न ही की जाए तो बेहतर है, ज़रूरी सुविधाएँ जैसे टॉयलेट और पीने के पानी तक का पर्याप्त प्रबंध थानों में नहीं दिखाई देगा। फ़िल्मों में थानों की बदहाली के दृश्य असलियत में और भी ज़्यादा भयावह हैं। गाँव देहात में तो थानों की सफ़ाई ही तब होती है जब किसी अधिकारी की नियुक्ति या तबादला होता है।

जहां तक अदालतों का संबंध है, न तो आवश्यक संख्या में न्यायालय हैं और न ही न्यायाधीश। जब स्वीकृत पदों में आधे के आसपास ही भरे हुए हों तो फिर केस लोड बढ़ना निश्चित है। मूल कारण यही है न्याय में देरी होने का और मुक़दमों का निपटारा पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहने का। उत्तर प्रदेश में एक केस को औसतन बारह साल फ़ैसला होने में लग जाते हैं। दूसरे प्रदेशों में यह अवधि भी कोई तसल्ली देने वाली नहीं है, सभी जगह एक से पाँच छःसाल लगना मामूली बात है।

ऐसा भी नहीं है कि सरकार इन सब चीज़ों के लिए पैसा नहीं देती। हालाँकि यह राशि अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से कम है, लेकिन इसे क्या कहेंगे कि लगभग आधी रक़म का इस्तेमाल ही नहीं होता ? यही कारण है कि जेलों में कुपोषण और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में क़ैदियों की हालत अमानवीय होने की हद तक है, धर्म, जाति और लिंग के आधार पर होने वाला भेदभाव दूसरा बड़ा कारण हैं इनकी दुर्दशा का। इंफ्रास्ट्रक्चर सुविधाओं के पर्याप्त न होने से बहुत सी जेलों में स्वीकृत तादाद से दुगने क़ैदी बंद हैं।

हालाँकि आधुनिक संसाधनों और टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से क़ैदियों की पेशी से लेकर ज़िरह और सुनवाई के बाद फ़ैसला सुनाने तक में काफ़ी कुछ बदला है जैसे कि वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग, इलेक्ट्रॉनिक समन और ऐप्स का इस्तेमाल, फिर भी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है। इसमें अदालतों की संख्या बढ़ाना और उनका आधुनिकीकरण बहुत ज़रूरी है। इसके साथ ही न्यायाधीशों के बैठने और उनके लिए अलग चैम्बर बनाये जाने ज़रूरी हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ यदि देश भर में न्यायालयों में सभी नियुक्तियाँ हो जायें तो एक चौथाई लोगों को बैठने तक की जगह नहीं मिलेगी। इनमें कर्मचारियों से लेकर न्यायाधीश तक हैं। इन्हें या तो घर से काम करना होगा या शिफ्ट लगानी होगी कि एक जाए तो दूसरा बैठ कर काम करे।

पुलिस की हालत यह है कि एक चौथाई पद ख़ाली हैं और औसतन एक व्यक्ति से 15 घंटे काम करने की उम्मीद की जाती है।कई मामलों में तो यह चौबीस घंटे भी हो सकते हैं। ऐसे में कैसे सोचा जा सकता है कि व्यक्ति में चिड़चिड़ाहट नहीं होगी, अपने काम के प्रति लापरवाही नहीं होगी और उसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ख़राब नहीं होगा। महिला पुलिस की हालत तो और भी दयनीय है क्योंकि उन्हें नौकरी के साथ घर भी सम्भालना होता है।

इसके साथ ही क़ैदियों की देखभाल और उन्हें प्रशिक्षण देने के लिए स्टाफ की बेहद कमी है। इनकी नियुक्ति को ज़रूरी भी नहीं समझा जाता जबकि सज़ा पूरी होने के बाद अपराध न करने की मानसिकता और प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना ज़रूरी है और यह जेल का जीवन ही है जो इसमें मदद कर सकता है।

क्या होना चाहिए

वर्तमान स्थिति से उबरने का एक रास्ता ग्राम स्तर पर न्यायालयों की स्थापना का है। हालाँकि इस संबंध में क़ानून भी है लेकिन अभी तक कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है। अगर इन्हें बना दिया जाये और साथ में क़ानूनी मदद भी निःशुल्क मिलने का इंतज़ाम हो तो मुक़दमों को संख्या में तेज़ी से कमी आयेगी और आपराधिक प्रवृत्ति को कम करने में सहायता मिलेगी। इसमें ऐसे क़ानून के ज्ञाता लोगों की एक टीम प्रत्येक अदालत में नियुक्त करनी होगी जो सही समय पर उचित सलाह दे सकने में सक्षम हो। इस टीम में महिलाओं की नियुक्ति अधिक से अधिक हो क्योंकि उनके समझाने का असर पुरुषों से अधिक होता है।

दूसरा उपाय लोक अदालतों को और अधिक मज़बूत करने का है। इनमें कोर्ट के बाहर आपसी सहमति से विवाद सुलझाए जाने पर ज़ोर देकर दोनों पक्षों को राज़ी करना प्रमुख है। अगर मुक़दमा करने से पहले सही सलाह मिलने का इंतज़ाम हो तो काफ़ी बड़ी संख्या में लोग अदालती कार्यवाही के पचड़े में नहीं पड़ना चाहेंगे।

जो विचाराधीन यानी अंडर ट्रायल हैं उन्हें मुक्त करने या उन पर मुक़दमा चलाने की व्यवस्था प्रत्येक जेल में हो और इन्हें अपनी सफ़ाई देने की साधारण प्रक्रिया अपनाने से बहुत लोग जेल के बाहर आ सकते हैं। इन्हें जेल में रखने की समय सीमा तय हो और छूटने पर इनकी निगरानी का इंतज़ाम होने से यह समस्या हल हो सकती है।

सरकार के पास यह रिपोर्ट है, यदि इन पर अमल के लिये राज्य स्तर पर एक समिति बना दी जाये जो समयबद्ध होकर काम करे तो न्याय के क्षेत्र में बहुत कुछ बदल सकता है।

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