शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

सरकार और प्रशासन के ढीलेपन से ही उपभोक्ता अधिकारों का हनन होता है

प्रतिवर्ष 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता दिवस मनाये जाने की परंपरा है। सन् 1900 के आसपास सबसे पहले अमेरिका में इस बात की चर्चा शुरू हुई कि अगर कोई व्यक्ति किसी निर्माता या दुकानदार की बेईमानी का शिकार होता है तो उसे क्या करना चाहिए ? समय के साथ इस बारे में जागरूकता बढ़ी और इसने एक आंदोलन का रूप ले लिया। यह लहर यूरोप से होती हुई एशियाई देशों और फिर पूरी दुनिया में फैल गई और आज सभी देशों में उपभोक्ता अधिकारों को लेकर क़ानून बन चुके हैं। अमीर देशों में अब यह पर्यावरण, प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग और जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों को सामान्य उपभोक्ता से जोड़ने तक का विषय बन चुका है। इस बार का थीम है स्वच्छ ऊर्जा के बारे में सामान्य नागरिकों को जागरूक किया जाए।


अपने देश की बात

भारत में उपभोक्ता आंदोलन की शुरुआत साठ के दशक में मानी जा सकती है। उसके बाद अस्सी के दशक में उपभोक्ता संरक्षण क़ानून बना और बड़े ज़ोर शोर से इसका प्रचार प्रसार हुआ। अपने अधिकार, जागो ग्राहक जागो जैसे कार्यक्रमों से सरकार की नीतियों का बखान शुरू हुआ और लगा कि देश से अब उपभोक्ताओं का शोषण समाप्त हो जायेगा। इसके लिए ज़िला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ता अदालतों का गठन हुआ और उम्मीद की गई कि अब ग्राहक की जेब नहीं कटेगी, उसे सही और प्रमाणित वस्तु मिलेगी, उसके साथ मूल्य और गुणवत्ता को लेकर धोखाधड़ी, छल फ़रेब, चालबाज़ी और हेराफेरी नहीं होगी और यदि कोई ऐसा करता है तो उसके ख़िलाफ़ पीड़ित द्वारा उपभोक्ता अदालतों में गुहार लगाई जा सकती है। उम्मीद की गई कि धोखे का शिकार व्यक्ति कदम उठाये तब ही न्याय मिलेगा। मतलब यह कि एक तो वह पीड़ित है, मुक़दमे का बोझ भी उठाये और अनंत काल तक न्याय पाने का इंतज़ार करता रहे।

नियम भी सरल जैसे दिखने वाले बना दिये कि सादे काग़ज़ पर अर्ज़ी दीजिए, ज़रूरी काग़ज़ात लगाइए और न्याय आपके घर दौड़ लगाता हुआ आएगा, न वकील का खर्च, न पेशी दर पेशी हाज़िर होना और न ही न्याय पाने के लिए भारी भरकम खर्च करने से लेकर दौड़भाग करने तक की दरकार, मानो सब कुछ दुरुस्त हो जाएगा, कह सकते हैं कि बस रामराज्य आ गया।

वास्तविकता क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। आज तक ज़िला स्तर पर स्थापित उपभोक्ता अदालतों की दशा पुराने जमाने के किसी सरकारी दफ़्तर जैसी है जिसमें न ढंग का फर्नीचर है, न बैठने का इंतज़ाम, पीने के पानी और शौचालय तक की ठीक व्यवस्था नहीं, साफ़ सफ़ाई तो दूर की बात है।

असल में हुआ यह कि क़ानून के मुताबिक़ इनका गठन ज़रूरी था तो जैसे तैसे इंफ़्रास्ट्रक्चर के नाम पर कुछ लीपापोती कर दी गई, सुनवाई करने और फ़ैसला देने के लिए सदस्यों की नियुक्ति भी हो गई जिसमें यह तक नहीं देखा गया कि जिनकी नियुक्ति हो रही है, उनकी क़ानूनी योग्यता क्या है और क्या उन्हें कोई अनुभव और ज्ञान है या किसी प्रतियोगी परीक्षा के तहत उनकी क़ाबिलियत सिद्ध हुई है अथवा उन्हें किसी की सिफ़ारिश या सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते या किसी राजनीतिज्ञ के कहने पर इस पद पर आसीन कर दिया गया है ?

यही कारण है कि क़ानून द्वारा तय समय में फ़ैसले नहीं होते और सामान्य अदालतों की तरह अब उपभोक्ताओं के लिए विशेष रूप से बनी अदालतों में भी दसियों साल तक फ़ैसलों का इंतज़ार करना पड़ सकता है। इससे इनकी स्थापना का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।

उदाहरण के लिए किसी घरेलू सामान की ख़रीदारी में धोखा हुआ है जैसे कि टीवी, फ्रिज, रसोई के उपकरण, कपड़ों और सौंदर्य प्रसाधन या दूसरी कोई भी वस्तु जो ख़राब निकली है, निर्माता या दुकानदार ने ग़लत दावे से गुमराह किया है और आपने यह सोचकर ख़रीदारी कर ली कि अगर कुछ ग़लत हुआ तो क़ानूनी मदद मिलेगी। यह ग़लत साबित तब हो जाता है जब इसके लिए वर्षों तक फ़ैसले की प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। इसलिए अधिकतर लोग पैसों का नुक़सान सहना या दुकानदार से लड़ झगड़कर कोई हल निकालने में ही अपना भला समझते हैं।

आजकल ऑनलाइन ख़रीदारी में तो धोखा होने के बेशुमार क़िस्से सुनने को मिल रहे हैं जिनका कोई समाधान नहीं, बस मन को समझाना पड़ता है कि नुक़सान सह लेना ही बेहतर है। प्रश्न उठता है कि जब वास्तविकता यही है कि अपना नुक़सान होने पर चुप बैठना पड़े तो फिर क़ानून के संरक्षण का लाभ किसे मिला ?

एक दूसरा उदाहरण है। अक्सर सभी ने देखा होगा कि पटरियों, पैदल चलने वाली जगहों और सड़क तक पर ख़ुदरा सामान बेचने वाले क़ब्ज़ा कर लेते हैं जिससे आने जाने में परेशानी होती है और अक्सर एक्सीडेंट हो जाते हैं, लोगों की जान तक चली जाती है। एक उपभोक्ता के रूप में प्रत्येक नागरिक का अधिकार है कि उसे साफ़ सुथरी सड़क, सुरक्षित पटरी और चौराहे पार करने की सुविधा मिलनी चाहिए लेकिन इन सब पर तो अनधिकार क़ब्ज़ा है तो क्या इसके लिये स्थानीय प्रशासन की ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह इस तरह क़ब्ज़ाई जगह ख़ाली कराए। हमारे देश में यह संभव नहीं, स्वयं प्रशासन इस तरफ़ से आँखें मूँद लेता है क्योंकि उसकी मिलीभगत के बिना कोई अतिक्रमण हो ही नहीं सकता।

अब यह देखिए कि मिलावट, नाप तोल में गड़बड़ी और निर्माता या विक्रेता की ग़लतबयानी से उपभोक्ता को नुक़सान होता है तो सरकार और प्रशासन की तरफ़ से कोई भी कार्यवाही तब होती है जब कोई शिकायत करता है जबकि व्यवस्था यह होनी चाहिए कि ग्राहक तक कोई भी वस्तु तब ही पहुँचे जब वह सभी मानकों पर खरी उतरती हो।

आजकल एक और धोखाधड़ी की जा रही है। किसी भी सामान पर लिखा मिल जाएगा कि इसकी मात्रा पहले से पच्चीस या इतने प्रतिशत अधिक है। इससे भ्रम होता है कि पहले के दाम पर ही ज़्यादा मात्रा मिल रही है। तो क्या पहले कम  मात्रा के अधिक दाम लिए जा रहे थे ? इसी के साथ गिफ्ट के रूप में कुछ देने की भी पेशकश होती है तो क्या इस बात का कोई सबूत है कि गिफ्ट की क़ीमत वस्तु के मूल्य में शामिल नहीं है ? यह सब भ्रामक तरीक़े से बिक्री करने के दायरे में आता है लेकिन हो रहा है और सरकार तथा प्रशासन कोई कार्यवाही नहीं कर रहा।

सरकार और प्रशासन का दायित्व केवल क़ानून बना देने तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसका पालन करने और करवाये जाने तक है। कह सकते हैं कि इसके लिए इंस्पेक्टर हैं, एक पूरी फ़ौज है जो हर कदम पर निगरानी करती है और दोषी पाए जाने पर दण्ड की भी व्यवस्था है। जब ऐसा है तो उपभोक्ता द्वारा शिकायत किए जाने का इंतज़ार क्यों किया जाता है ? और इसके अतिरिक्त यह कि बाज़ार में मिलावटी, कम वजन और ख़राब क्वालिटी का सामान क्यों और कहाँ से आता है, इसकी जानकारी रखना और रोकथाम करना सरकार और प्रशासन का काम है तो क्या ऐसा होने पर जिम्मेदार अधिकारियों, विभागों से लेकर मंत्रालयों तक पर उपभोक्ता अधिकारों के हनन के लिये कार्यवाही नहीं होनी चाहिए ?

सरकार ने सेंट्रल कंज़्यूमर प्रोटेक्शन अथॉरिटी का गठन भी किया जिसे बहुत से अधिकार प्राप्त हैं। प्रश्न यह है कि इसका स्वरूप एक सरकारी मंत्रालय की तरह क्यों है, क्या इसका काम यही नहीं है कि उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए यह स्वयं कदम उठाये न कि तब जब कोई उपभोक्ता इसका दरवाज़ा खटखटाए।

विश्व उपभोक्ता दिवस पर प्राधिकरण इतना ही बता दे कि उसके गठन के बाद से लेकर अब तक कितने संबंधित अधिकारियों, विभागों और संस्थाओं पर कार्यवाही हुई है तो इसका उत्तर शून्य में ही मिलेगा।

उपभोक्ता आंदोलन की स्थिति हमारे देश में नगण्य है क्योंकि जो काम प्रशासन का है उसे करने की अपेक्षा सामान्य उपभोक्ता से की जाती है। यह सुनिश्चित करना सरकार और प्रशासन का काम है कि बिक्री के लिए कोई भी वस्तु या सेवा उपभोक्ता तक तब ही पहुँचे जब वह सभी मापदंड पूरे करती हो। इसके अतिरिक उसके अधिकारों के संरक्षण के लिए समय सीमा का पालन कड़ाई से हो और इसकी अनदेखी करने वाले पर सख़्त कार्यवाही हो। इतना हो जाए तो बहुत है, शेष काम तो उपभोक्ता स्वयं कर ही लेगा।

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