विश्व बाल
मजदूरी विरोध दिवस
प्रति
वर्ष जून के महीने में
बारह तारीख को विश्व स्तर
पर एक ऐसा दिवस
मनाया जाता जो इंसानियत के
नाते तो अपना महत्व
रखता है लेकिन सरकार
या जनता को उससे कोई
ज्यादा सरोकार नहीं रहता। हमारे देश में नेहरु का जन्मदिन बाल
दिवस के रूप मनाने
की औपचारिकता हर वर्ष निभाई
जाती है लेकिन दुनिया
में कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जिन्हें
पता ही नहीं होता
कि बालपन या बचपन भी
जिंदगी का हिस्सा होता
है। इन्हें चार पाँच साल का होते ही
काम करने भेज दिया जाता है। यह काम भीख
मांगने से लेकर घरेलू
काम, ढाबे पर बर्तन साफ
करना, पंक्चर लगाना, भट्टी में कोयला झोंकना, खतरनाक कैमिकल से कपड़े या
चमड़े की रंगाई करना,
काँच की चूड़ियाँ या
दूसरी चीजें बनाने का है जिसमें
मासूम बच्चों को लगा दिया
जाता है। इन्हें शायद बड़ी उम्र वाला कभी न करे और
करने के लिए मान
भी जाए तो काम के
मुताबिक मेहनताने की मांग करे।
अंर्तराष्ट्रीय
स्तर पर इस दिवस
को मनाने की शुरूआत इसलिए
की गई कि दुनियाभर
में इन कामों को
बच्चों से न कराया
जाए और बच्चे वह
काम करें जो उन्हें बचपन
का अहसास दिलाए मतलब कि उनका काम
पढ़ना लिखना, खेलना कूदना और हल्की शरारत
करना ही हो। हम
बच्चों को देश का
भविष्य कहते नहीं थकते लेकिन प्रश्न यह है कि
क्या मजदूरी करने वाले ये बच्चे देश
का भविष्य नहीं है।
इस
दिन बहुत खोजने पर भी किसी
अखबार या चैनल में
इस महत्वपूर्ण विषय पर कोई लेख,
बहस या घोषणा नहीं
मिली सिवाय एक अंग्रेजी अखबार
में इस समस्या को
जड़ मूल से समाप्त करने
का संकल्प लेकर चलने वाले कैलाश सत्यार्थी के लेख के,
जबकि यह समस्या अपने
ही देश में इतनी विकराल है कि अगर
कोई संवेदनशील समाज हो तो वह
विचलित हुए बिना न रहे।
मजबूरी या
बहाना
दुनिया
की बात क्या करें, भारत में ही बाल मजदूर
हजारों लाखों में नहीं करोड़ों में हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है
कि अगर ये करोड़ों बच्चे
भीख मांगकर या मजदूरी न
कर पढ़ लिखकर कुछ
बनने की राह पर
चलने लगते तो देश को
कितना सामाजिक और आर्थिक लाभ
होता। असलीयत यह है कि
बाल मजदूरी की मजबूरी को
गरीबी का बहाना बनाकर
टाल दिया जाता है लेकिन वास्तविकता
यह है कि यह
हमारा लालच, दबंगई, शोषण करने की मानसिकता और
जोर जबरदस्ती करने से लेकर बच्चों
पर जुल्म करने तक की आदत
है जो बाल मजदूरी
को खत्म करने में सबसे ज्यादा आड़े आती है। इसके आगे कानून की कड़ाई का
भी कोई अर्थ नहीं।
सोच बदलनी
होगी
चलिए
एक और दृश्य का
अहसास कराते हैं। परिवार में एक ओर साफ
ड्रेस पहने बच्चे स्कूल जाने को तैयार हैं
और घर में उन्हीं
की उम्र का नौकर या
नौकरानी भी है तो
इन एक ही उम्र
के बच्चों की सोच का
अंदाजा लगाइए। एक को हुक्म
चलाना है तो दूसरे
को हुक्म मानना है। अगर उससे कोई चूक हो गई तो
सजा मिलना तय है। अगर
उसने फ्रिज में से कोई मिठाई
या स्वादिष्ट वस्तु मुँह में रख ली या
अगर कहीं आपके बच्चे का पुराना खिलौना
भी उसने बाल सुलभ उत्सुकता से छू भर
लिया तो उसे चोर
मानकर मारपीट कर लहू लूहान
करने में कोई देर नहीं लगाते।
एक
दूसरा सीन है। किसी कारखाने, दुकान में गर्मी सर्दी बरसात में दिन रात भूखे पेट या रूखी सूखी
रोटी खाकर काम करने वाले 8-9 से 12-14 साल के बालक की
जरा सी गलती पर
उसे यातना, उत्पीड़न और यौनाचार तक
सहन करना पड़ता है। यह सब क्या
सोचने को विवश नहीं
करता कि दुनियाभर की
बात करने की बजाय अपने
ही देश से इस बुराई
को पूरी तरह खत्म करने के लिए उन
उपायों के बारे में
मंथन किया जाए जिनसे मजदूरी कर रहे लड़के
और लड़कियों को उस नर्क
से निकाला जा सके जिसकी
बजह ज्यादातर हमारा स्वार्थी होना है। उनका खोया बचपन लौटाने का काम करने
में जितना पुण्य मिल सकता है उतना शायद
सभी तीर्थों की यात्रा और
धार्मिक स्थलों, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरजाघर के
चक्कर लगाने और पूजा पाठ
करने से भी न
मिले।
यह
करने के लिए किसी
रॉकेट साईंस की नहीं बस
सच को समझने और
सोच को बदलने की
जरूरत है।
आँकड़ों
की बात करें तो विकासशील देशों
में 5-14 वर्ष की आयु के
लगभग चौथाई बच्चे मजदूरी करते हैं जिनमें उनकी सेहत के लिए खतरनाक
काम करने वाले भी उसका लगभग
चौथाई हैं। इनमें से ज्यादातर अपने
मालिक की यौन इच्छाओं
की पूर्ति करने के लिए भी
मजबूर किए जाते हैं। यह लोग स्वयं
तो उनके साथ दुराचार करते ही हैं बल्कि
अपने मेहमानों से लेकर अधिकारियों
और कानूनी कार्यवाही से बचने के
लिए पुलिस को भी उन्हें
बंधुआ मजदूर के रूप में
पेश कर देते हैं।
यह कितनी भयावह स्थिति है इसका अंदाजा
इस बात से लगता है
की बड़े होकर तीन चौथाई लोगों का अपराधी बनने
का कारण बचपन में बाल मजदूरी के दौरान उनके
साथ हुआ अत्याचार और यौन शोषण
है। देहाती इलाकों में यह सबसे ज्यादा
होता है और अब
शहरों में यह आँकड़े तेजी
से बढ़ रहे हैं।
समाधान
बाल
मजदूरी का सबसे बड़ा
दुष्परिणाम यह होता है
कि इन बच्चों को
पढ़ाई लिखाई बेकार लगने लगती है क्योकि मालिकों
द्वारा उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है कि स्कूल
के नाम से ही उन्हें
चिढ़ होने लगती है। उनके मन में यह
भर दिया जाता है कि पढ़ने
के बाद भी उनकी आमदनी
जिंदगी भर उतनी नहीं
होगी जितनी अभी हो रही है।
वास्तविकता
को ध्यान में रखते हुए यह कहना गलत
होगा कि केवल गरीबी
ही इसका कारण है बल्कि उनके
माता पिता का लालच और
कारखानेदारों द्वारा उनका मानसिक और शारीरिक शोषण
है।
बाल
मजदूरी रोकने के लिए जो
कानून हैं उनका इस्तेमाल जिस ढिलाई से होता है
उसमें राजनीतिक दबाब और घूसखोरी के
साथ पुलिस के भ्रष्ट अधिकारियों
द्वारा अपराधी के पकड़े न
जाने का पूरा इंतजाम
भी है। इस वजह से
ही न कानून का
डर और न ही
पकड़े जाने और सजा पाने
का भय बाल मजदूरी
को समाप्त न होने देने
के लिए जिम्मेदार है।
विडम्बना
यह है कि बाल
मजदूरी उन्मूलन में लगी संस्थाओं और उनके संचालकों
की सहायता करने के स्थान पर
उनके काम में रोड़ा अटकाने, उन्हें ही कसूरवार ठहराने
से लेकर उन पर हमला
करवाने तक की साजिशें
की जाती है। बचपन बचाओ आंदोलन के प्रवर्तक और
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश
सत्यार्थी पर कई बार
हुए जानलेवा हमले इसकी छोटी सी बानगी है।
इस
हालत में सरकार और कानून से
ज्यादा उम्मीद रखने के बजाय प्रबुद्ध
नागरिकों को आगे आना
होगा। सबसे पहले अपने ही घर से
शुरुआत करनी होगी। 4 में 14 साल के बच्चों को
घरेलू कामों के लिए नौकर
न रखने की पहल करनी
होगी। अगर कोई उनके पास आता भी है तो
वो उसकी पढ़ाई लिखाई का खर्च स्वयं
उठाने और उसे जरूरी
सुविधाएँ देने की पहल करें। अगर
इस उम्र के किसी बालक
को दुकान, ढाबे या फैक्टरी में
काम करता पाएँ तो आँखे फेरने
के बजाय उसे वहाँ से निकालने की
योजना बनायें। इसके लिए इस क्षेत्र में
काम कर रही संस्थाओं
का सहयोग लें और ऐसे बच्चों
की आर्थिक रूप से मदद करें।
यह कुछ ज्यादा नहीं होगा बल्कि उनकी आमदनी का छोटा सा
हिस्सा ही होगा लेकिन
किसी बच्चे के लिए जिंदगी
का वरदान होगा।
अगर
हरेक कस्बे या जिले यहाँ
तक कि गाँव देहात
में भी इस तरह
की व्यवस्था ग्राम पंचायत के माध्यम से
किए जाने का संकल्प नागरिक
कर लें तो इस समस्या
को जड़ से खत्म
किया जा सकता है।
पाठकों
से अनुरोध है कि यदि
उनके पास कोई योजना है जिससे यह
बुराई दूर हो सके तो
उसे अमल में लाने का संकल्प ले
क्योंकि यह मुद्दा देश
के भविष्य से जुड़ा है।
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