हमारी पहचान
यह कैसा प्रश्न है कि मुझे अपने आप से पूछना पड़ रहा है कि क्या मैं भारतीय हूँ और क्या मुझे अपनी भारतीयता पर घमंडी होने की हद तक गर्व हो सकता है ।
आज देशवासियों के लिए यह एक यक्ष प्रश्न खड़ा हो गया है जिसका उत्तर देना आसान हो सकता है लेकिन क्या वह सत्य की कसौटी पर खरा उतरता है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
अगर ऐसा न होता तो कुछ लोग भारत का मुखौटा लगाकर भारत तेरे टुकड़े होंगे का नारा लगाते न सुनाई देते। गनीमत होती कि बात यहीं तक रहती लेकिन कुछ लोग जो राजनीति और पत्रकारिता का व्यवसाय नहीं बल्कि धंधा करते है उनके सुर में सुर नहीं मिलाने लगते। अफसोस यह कि इनमें वे लोग हैं जो भारतीय होने और भारतीयता पर गर्व करने की वकालत करते नहीं थकते और देश का कर्णधार और मझदार में हिचकोले खा रही नैया का खेवनहार बनने का स्वाँग रचते हैं।
आपातकाल की हकीकत
अब हम कुछ वर्ष पहले के दृश्य की ओर ले चलते हैं जिसकी बरसी हम हर साल थोड़ा गुणगान कर और थोड़ा मातम करते हुए मनाते हैं। यह आपातकाल था जिसे एक प्रधानमंत्री ने अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और साख से लेकर हैसियत बचाने के लिए देश में लगाया था और उसे भारत के एक महान सपूत और संत की उपाधि से विभूषित विनोबा भावे ने अनुशासन पर्व कहा था। उनके नाम से संचार के सभी साधनों के जरिए यही प्रचार किया जाता था कि यह देश की रक्षा और उन्नति के लिए अनिवार्य था, मानो कि देश रसातल में धँस रहा था।
अब उस समय की युवा और अधेड़ उम्र की पीढ़ी वृद्ध होती जा रही है और मार्गदर्शक का नकाब लगाए केवल टुकुर टुकुर देखने के लिए विवश है।
जरा गौर से देखें तो जब कुछ लोग शत्रु पाकिस्तान से बदला लेने के लिए सेना द्वारा की गयी कार्यवाही पर ऊँगली उठाते हैं और कुछ लोग सत्ता हासिल करने के लिए पाकिस्तान के हुक्मरानों से मदद की गुहार लगाते हैं और यही नहीं इसके लिए देश में विघटन कामाहौल बनाते हैं तो क्या यह हालात संविधान के मुताबिक आपातकाल लगाने की परिधि में नहीं आ जाते।
जिस पीढ़ी ने आपातकाल का दौर देखा है उन्हें याद होगा कि मध्यम और निम्न वर्ग ने इसका समर्थन किया था क्योंकि वह महँगाई बेरोजगारी मिलावट कालाबाजारी और जमाखोरी से त्रस्त था। जो छात्र और प्रदर्शनकारी थे वे सड़कों से हटकर कक्षा और अपने अपने काम पर लग गए थे। तस्कर मुनाफाखोर और गैर कानूनी काम करने वाले अपराधी जेल के अंदर थे।
सरकारी दफ्तरों में कर्मचारी समय पर आने के लिए पाबंद हो गए थे और जनता की बात सुनने और उसका काम करने लगे थे। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधारने की तरफ सरकार का ध्यान जा रहा था। खाद्य पदार्थों और अनिवार्य वस्तुओं की उपलब्धता में सुधार हो रहा था। तब की प्रधानमंत्री जानती थीं कि जनसमर्थन पाने के लिए यह सब करना जरूरी था।
तो फिर क्या कमी थी कि आपातकाल बुरा हो गया। वह था राजहठ और पुत्रमोह जिसने कुछ ऐसे काम जो दुष्कर्म तक के दायरे में आते हैं करवा दिए जिससे जनता भयभीत और त्राहि त्राहि कर उठी। इसमें निर्दोष सरकारी अधिकारियों की प्रताड़ना से लेकर सामान्य नागरिक का उत्पीड़न तक शामिल हो गया। उसके बाद जो हुआ वो तो होना ही था क्योंकि मनुष्य चाहे बदला लेने से चूक भी जाए लेकिन कुदरत तो दूध का दूध और पानी का पानी कर ही देती है।
वर्तमान में जिन हालात से देश गुजर रहा है वह कमोवेश उथल पुथल होने जैसे तो हैं ही, जिन्हें अगर पटरी पर लाने के लिए सुनियोजित ढंग से कार्यवाही न हुई तो देश में आपाधापी से लेकर गृहयुद्ध और अफरातफरी तक का वातावरण देखने को मिल सकता है।
अनुशासन पर्व हो
क्या यह जरूरी है कि अनुशासन और अपना काम समर्पण और निष्ठा से करने के प्रति कानूनी डंडे का सहारा लिया जाय? मान्यता यह है कि टेढ़ी राह पर चलने वालों के लिए नियम कायदे सिर्फ एक कागज के टुकड़े जितनी अहमियत रखते हैं। क्या यह तब ही हो सकता है जब भय बिन होय न प्रीत की कहावत को चरितार्थ किया जाय और लाठी का इस्तेमाल अनिवार्य हो जाय।
इसके लिए कोई पहाड़ के पत्थर तोड़ने जैसी कवायद नहीं करनी बल्कि स्वयं को एक ऐसे साँचे में ढालना होगा कि हमें स्वतः ही अपने काम के प्रति सच्चाई बरतने की आदत पड़ जाए।
अगर ध्यान से देखा जाय तो आज भी वही काम हो रहे हैं जिन्हें आपातकाल लगाकर करने की कोशिश की गयी थी। फर्क सिर्फ इतना है कि तब यह काम एक व्यक्ति का हित साधने के लिए किए जा रहे थे और आज ज्यादातर देश हित में किए जा रहे हैं।
राजमोह का त्याग
आज की स्थिति यह है कि पुत्रमोह तो नहीं है लेकिन राजमोह अवश्य है जिसके कारण असलियत की तरफ से आँख मूँदने का काम तब भी होता था और आज भी हो रहा है जिसके कारण असंतोष से लेकर विद्रोह करने तक की भावना जनमानस के बीच पनप रही है।
यह राजमोह का ही नतीजा है कि चार साल तक कश्मीर में दोषियों को सजा देने और निर्दोषों की रक्षा करने से परहेज होता रहा।
इसी प्रकार राजमोह की बदौलत देश के टुकड़े करने की धमकी देने वालों से लेकर गोरक्षा के नाम पर निर्मम हत्या तक करने वालों को सुरक्षा मिल जाती है।
रोजगार के भ्रामक आँकड़ों के बल पर बेरोजगारी दूर करने का जश्न मना लिया जाता है। स्वरोजगार करने को बढ़ावा देकर जब उनकी आर्थिक सहायता करने की बात आती है तो वही बैंक के घिसे पिटे नियम और कागजी कार्यवाही आगे आ जाती है और योग्य तथा कर्मठ और बुद्धिमान निराशा के भँवर में धकेल दिया जाता है। न्याय व्यवस्था ऐसी है कि जघन्य अपराध के दोषियों को सजा सुनाए जाने के बाद बरसों बरस तक सजा से दूर रख कर पालने पोसने का काम किया जाता है।
आर्थिक अपराधियों से लेकर देशद्रोहियों तक को बचाने की पैरवी हो जाती है
तो फिर क्या किया जाय, हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाया जाय या फिर स्वयं पर ही भरोसा कर उठ खड़ा हुआ जाय या फिर किसी जयप्रकाश नारायण के आने का इंतजार किया जाय।
कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए कि सामान्य व्यक्ति को भारत में रहने और भारतीयता पर गर्व करने में संकोच न हो।
ऐसा भी नहीं है कि पिछले चार साल में कुछ बदला नहीं है। बहुत कुछ बदला है और देहाती इलाकों में ही सही सकारात्मक परिवर्तन का दौर नजर आने लगा है। जो आबादी अंधेरे और पिछड़ेपन में रहने के अभिशाप से ग्रस्त थी उसके चेहरे पर मुस्कान आँखों देखी है। एक उम्मीद की लहर शुरू तो हुई है बशर्ते कि यह किसी झंझावात में न गुम हो जाय। इसीलिए अगला आम चुनाव एक ऐसे निर्णायक मोड़ पर खड़ा चुनौती दे रहा है कि या तो लहर पर सवार होकर अपनी मंजिल तक पहुँचने में सफल हुआ जाय या किसी जाल में फँसकर रसातल में पहुँच जाया जाय।
अंत में अपने मित्र ओम् प्रकाश की कुछ पंक्तियाँ जो बहुत सटीक हैं।?
एक आग
मोमबत्तियां
अंधेरों के साथ हो गई हैं
मोमबत्तियों ने तय कर लिया है
जलने की बजाय बुझ जाना।
मोमबत्तियों ने
घुप्प अंधेरों के दंभ में
उजाले को गुनाहगार
ठहरा दिया है
मोमबत्तियों ने गढ़ ली हैं
अन्याय की अनगिन कहानियां।
गुमराह हवाएँ
मोमबत्तियों के शह पर
जलाने लगी हैं बस्तियां।
सुबह के उजाले में
अंधेरे बेनकाब गए हैं
मोमबत्तियां
ढूंढ़ रही हैं
अपना प्रकाश
और एक आग
जो उसे रोशन कर सके।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें