बिखराव की शुरुआत
जब परिवार हो या समाज, कोई यह कहता है कि ‘अरे तुम तो अपने हो’ के पीछे जहाँ एक ओर यह भावना होती है कि हम तुम्हें सब से ज्यादा चाहते हैं और देखो तो सही तुम्हारा ख्याल हमें कितना रहता है, वहाँ कदाचित् यह सोच भी होती है कि ‘अरे यह कहाँ जाने वाला है‘ या ‘हमारे बिना इसकी हैसियत ही क्या है।‘ इसका मतलब यह है कि हमारी यह धारणा बन जाती है कि हमने हमारे परिवार के सदस्य या जिस समाज में हम उठते बैठते हैं वह हमारे अलावा किसी भी बात के लिए कहीं और नहीं जाएगे। अंग्रेजी में इसे टेकन फॉर ग्रांटेड कहते हैं।
परिवारों में ज्यादातर देखने को मिलता है कि जिनमें पुरूष या महिला दोनों या उनमें से कोई एक सब को अपने अनुसार चलाने या अपनी मुट्ठी में रखने का सिद्धांत मानते हैं । उनमें एक तरह से रूखापन, तुनक मिजाजी, तानाशाही जैसी प्रवृत्ति और अपने ही परिवार में स्वंय को मालिक और बाकी सब को सेवक समझने जैसा व्यवहार देखने को मिलता है।
अगर उनकी बात न मानी गयी, अनुसनी कर दी गयी, उनके सवाल का जवाब देने में तनिक सी भी देरी हो गयी तो उनके क्रोधित होकर रौद्र रूप धारण करने में जरा भी समय नहीं लगता। क्रोध में आकर उठापटक, मारपीट और यहां तक कह देते हैं कि मेरी बात माननी ही होगी‘, ‘इस घर में मेरा हुक्म चलेगा‘, ‘मेरा सामना करने की हिम्मत‘ या फिर यहां तक कह देते हैं, ‘निकल जाओ मेरे घर से‘ या ‘मैं ही यह घर छोड़कर चला जाता हूं।‘
यह तो हुई परिवार की बात जिसमें आप सभी सदस्यों को अपना मानते हैं लेकिन अपना बनाने के प्रति आंख मूंद लेते हैं।
अब समाज में जो तत्व सबसे अधिक असर रखते हैं, उनकी बात करते हैं। उनमें, नेता, राजनीतिक दल और विभिन्न समाजसेवी संस्थाएं जैसे आर डब्ल्यु ए, आती है। बहुत से राजनीतिक दल और उनके स्थानीय नेता किसी धर्म, जाति या वर्ग के लोगों को जन्मजात अपना मानकर चलते हैं। उदाहरण के लिए किसी जमाने में कहा जाता था कि कांग्रेस अगर किसी खास इलाके से गधे को भी खड़ा कर देगी तो वह जीत जाएगा। इसी प्रकार भाजपा, समाजवादी, बहुजन, कम्युनिस्ट और अन्य दलों के नेता अल्पसंख्यकों, जाति विशेष या धार्मिक आधार पर पूरे के पूरे एक तबके को अपना वोट बैंक समझने लगते हैं। उन्हें भरोसा रहता है कि चुनाव में इनके वोट तो उन्हें मिलेंगें ही क्योंकि ये तो अपने हैं।
इसी प्रकार राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्र्रीय स्तर पर हम कुछ देशों को अपना समझ लेते हैं और उन्हें अपने लिए महत्वपूर्ण होने का दर्जा भी दे देते हैं। प्रशन उठता है कि क्या हम उन्हें अपना बनाने की भी कोई कोशिश करते हैं जिन्हें अपना समझते हैं अथवा जिन्हें अपना समझा था वह अपना बनाने के योग्य भी है या नहीं। यह भ्रम तब बिखर जाता है जब इसकी आड़ में पीठ पर वार किया जाता है।
एक राजनीतिक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाएगी। इससे पहले इस बात को जानना जरूरी है कि किसी को अपना बनाने के लिए बहुत से पापड़ बेलने पड़ते हैं, उसका ख्याल इस तरह रखना होता है कि मुसीबत पड़ने पर वह अपने को अकेला या बेसहारा न समझे मतलब कि उसके दुख दर्द, तकलीफ, हारी बीमारी और परेशानी में उसे लगे कि उसके साथ कोई खड़ा है।
अब उदाहरण देखिए। हम गुजरात और जम्मू कश्मीर का उदाहरण लेते हैं।
गुजरात में जब हिन्दु-मुस्लिम दंगे हुए तो दोनों ही वर्गो को भारी क्षति उठानी पड़ी। मुस्लिम समुदाय तो एक तरह से अलग थलग ही पड़ गया और वे स्वंय को वहां असुरक्षित तक समझने लगे।
ऐसी हालत में वहां की तत्कालीन राज्य सरकार ने इस बात को समझा और स्थिति को एकदम पलट दिया। उसने इस वर्ग के लिए इतनी सुविधाएं, सहूलियतें और विकास के अवसर सुनिश्चित कर दिये कि दंगों में अपना सबकुछ गवाँ चुके परिवार भी सत्तारूढ़ दल के साथ हो गये।
यह मैंने स्ंवय अनुभव किया, जब एक फिल्म निर्माण के समय वहां जाना हुआ। मैंने जब पूछा कि ‘क्या आप पर दंगांं का असर अब तक पड़ रहा है।‘ उनके जवाब ने मुझे निरूत्तर कर दिया। उन्होंने कहा ‘सर जी भूल जाईए न उस वक्त को और उसे जो कुछ हुआ था। हम उसे कब का भुला चुके हैं, हमारा वर्तमान बहुत सुखी है और भविष्य बेहतर है।‘
इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार ने उन्हें अपना समझा औेर अपना बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
अब हम जम्मू कश्मीर की बात करें जिसे हम अपना कहते हुए नहीं थकते लेकिन इस राज्य में अनेक विशेष प्रावधानों के अन्तर्गत कुछेक रियायतें देने के अतिरिक्त वहां के निवासियों को अपना बनाने के लिए कुछ विशेष नहीं किया गया।
अगर हम उन्हें अपना समझने से ज्यादा अपना बनाने की तरफ ध्यान देते और वहां रोजगार, उद्योग, स्वास्थ्य तथा शिक्षा के लिए व्यापक योजनाएं बनाते और उन्हें अमली जामा पहनाकर नागरिकों की आर्थिक और सामाजिक प्रगति सुनिश्चित कर देते तो वहां अलगाववादी, पत्थरबाजी जैसी घटनाओं का साक्षी नहीं होना पड़ता। अगर यह हो जाता तो पाकिस्तान वहां रहने वालों को बरगलाने में कामयाब नहीं होता और दुश्मन अपना समझने की भूल नही करता।
मैंने स्वंय जम्मू कश्मीर की अपनी यात्राओं में महसूस किया है कि वहां के लोगों को किस तरह गरीबी, पिछडे़पन , अशिक्षा, बेरोजगारी का बोझ ढोते ढोते उनकी कमर इतनी झुक गयी है कि कभी भी टूट सकती है। जब कुछ टूटता है तो वह या तो नेस्तनाबूद हो जाता है या फिर विद्रोह का झंडा बुंलन्द हो जाता है।
हमारी राज्य और केन्द्र की सरकारों ने कशमीरी पंडितों के वहां से खदेड़े जाने के बाद बजाय इस बात के कि उनके पुनर्स्थापन के लिए कड़े कदम उठाए जाते, हमने उन्हें विस्थापित बना दिया और जो वहां रह गये उन्हें उनके रहमोकरम पर छोड़ दिया जो किसी भी हालत में वहां शांति नहीं चाहते।
इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि अपना समझने को किस तरह अपना बनाने की प्रक्रिया में बदला जा सकता है।
खाई को पाटना
अपना समझने और अपना बनाने के बीच की खाई भरने के लिए सबसे पहले यह बात अपने दिलो दिमाग से निकालनी जरूरी हो जाती है कि हम यह भूल जाएं कि बड़े होने की हैसियत से उन पर जो हमारे अपने हैं ; कोई एहसान कर रहे हैं, खैरात बांट रहे हैं या उन्हें पालने पोसने का खर्चा उठा रहे हैं।
इस प्रक्रिया के महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि जो केवल ‘अपना‘ समझता है वह क्रोध, अहम् तथा अहंकार से ग्रसित होता है। यह एक तरह की मनोवैज्ञानिक बीमारी है। जिससे बाहर निकले बिना किसी को अपना बनाना असंभव है। ऐसा व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र एक मिथ्या भ्रम में जीने लगता है जिसका परिणाम कभी सुखदायी हो ही नहीं सकता। उसमें नकारात्मकता इतनी अधिक होती है कि वह दूसरों को विद्रोह के लिए प्रेरित कर सकता है। यह ऐसा है जैसे कि सत्य के स्थान पर हम झूठ का दामन थाम लेते हैं। इस कड़ी में सत्य को स्वीकार करने और सच्चाई से किसी को अपना बनाने की प्रक्रिया को बार बार दोहराया जाना जरूरी है।
अपना बनाने के लिए जरूरी है कि अपने क्रोध और अहंकार को विनम्रता तथा सहयोग से बदलने की दिशा में उचित कदम उठाए जाएं। इसका इससे अच्छा उदाहरण क्या होगा कि जब हमने अपने वायु सैनिक अभिनन्दन को देश वापिस लाने के लिए आकाश पाताल एक कर दिया तो पूरी सेना और देश में यह संदेश गया कि हमने न केवल अभिनन्दन को अपना समझा बल्कि पूरी सैन्य बिरादरी को अपना बना भी लिया है।
कोई भी परिवार, समाज या फिर सरकार किसी को अपना तब ही बना सकती है जब वह अपना समझने की परिधि से बाहर निकलकर वास्तव में कुछ ऐसा करे कि ऐसा लगे कि जो गरीब, शोषित, वंचित और पीड़ित है, वह अकेला नहीं है, तब ही किसी मुखिया, दल या सरकार के संवेदनशील होने की मुहर लग सकती है।
पात्र और कुपात्र की पहचान
यहां एक व्यवहारिक बात का भी जिक्र करना उचित होगा। ऐसा भी हो सकता है कि हम जिन्हें अपना समझते हों, उन्हें अपना बनाने के लिए कोई कोर कसर न छोड़े परन्तु वह व्यक्ति, समाज या देश अपनी जिद, हठधर्मिता अथवा उन्माद के कारण हमारी सहनशीलता को कमजोरी समझकर हम पर पलटवार करता रहे।
इस अवस्था में बेहतर यही होगा कि उस व्यक्ति या समाज को अन्तिम चेतावनी देने के बाद निश्चित रूप से इस तरह की कार्रवाई की जाय जिससे उसकी समझ में यह आ जाए कि विनम्रता कोई कमजोरी नहीं होती बल्कि ऐसा गुण है जो कि धुरविरोधी को भी घुटने टेकने के लिए विवश कर सकता है।
अपना समझने ओर अपना बनाने के लिए बहुत ही महीन विभाजक रेखा होती है जो तय करती है कि अपना कौन है और पराया कौन! अनेक बार परिवार और समाज में ऐसी स्थिति आती है कि जिन्हें अपना समझा, वह कभी हमारे नहीं हो पाते। इस अवस्था में श्रेयस्कर यही होता है कि सम्मानपूर्वक और न्यायिक प्रणाली के तहत धन, सम्पदा, जमीन, जायदाद का विभाजन कर दिया जाए और दोनों पक्ष अपनी अपनी हैसियत के मुताबिक जीवनयापन करें। उसमें अगर जरा सी भूलचूक हो जाए तो जिन्दगीभर लेने के देने पड़ सकते है।
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