शासन के अनेक रूप
हमारे देश पर शासन करने वालों के मोटे तौर पर तीन रूप रहें हैं।पहला राजा महाराजा और उनके अधीन रहकर भी अपनी बातों और नीतियों को मनवा सकने की योग्यता रखने वाले मनीषी, आचार्य, गुरु से लेकर साधु सन्यासी तक का राज्य।
दूसरा रूप रहा विदेशी आक्रांताओं, हमलावरों और किसी न किसी बहाने से देश की समृद्धि से प्रभावित होकर उस पर अपना कब्जा जमाने की नीयत से आए व्यापारियों का।अब क्योंकि उनका इरादा ज्यादातर भारत को लूटना खसोटना था तो उन्होंने यहाँ के राजा महाराजाओ से ज्यादा छेड़छाड़ न करने बल्कि उन्हें अपने साथ मिलाकर अपने मंसूबों को पूरा करने को अहमियत दी।
विदेशी शासन के दौरान यहाँ के मूल निवासियों अर्थात भारतीयों को अमानुषिक अत्याचार से लेकर लोभ, लालच, ईर्ष्या, द्वेष, हीन भावना और यहाँ तक कि उनके अंदर यह सोच भर देने का काम हुआ कि वे इंसान ही नहीं हैं बल्कि पशुओं से भी बदतर हैं।
अपने इस मनोरथ को पूरा करने के लिए उन्होंने देशवासियों को दो स्पष्ट टुकड़ों में बाँट दिया, एक था अमीरों का जिसमें राजे, रजवाड़ों और नवाबों के खानदान आ गए जिन्हें अपनी तरफ रखने के लिए ऐशो आराम और विलासिता के सभी साधन उन तक सुलभ कर दिए गए। यह सब लोग हालाँकि मुट्ठी भर थे लेकिन शासक के इशारों पर चलने वाले होने के कारण उनका काम केवल यह रह गया कि वे दूसरे पक्ष को जो कि बहुमत अर्थात विशाल संख्या में था उसे अपने काबू में रखें।
इस तरह अमीर और गरीब दो वर्गों का जन्म हुआ जिसका आधार यही थी कि एक के पास सब कुछ और दूसरे के पास कुछ नहीं। एक ओर सब तरफ आलीशान और भव्यता लिए हुए जीवन यापन के सभी साधन और दूसरी ओर पेट भरने के लिए दो वक््त की रोटी का भी जुगाड़ कर सकने में अनगिनत मुश्किलें।
इस विकट परिस्थिति और अंतहीन अत्याचार की घेराबंदी से निकलने की कोशिश से ही आजादी हासिल करने की नींव पड़ी और देश के गरीब, विपन्न और साधनहीन तबकों और कुछेक सम्पन्न लोगों के बीच से ऐसे लोग सामने आने लगे जो भारत को विदेशी दासता से मुक्त कराने का संकल्प लेकर आजादी की मशाल बनकर आगे आए।
व्यक्तिवादी सोच
आजादी मिलने तक अधिकतर सोच मिलजुलकर और एकजुटता से अपनी मंजिल हासिल करने की रही और कुछ समय तक यही हावी रही लेकिन इसकी अवधि अधिक नहीं रही क्योंकि इसमें व्यक्तिवादी सोच का घोल मिलने लगा। कुछ समय बाद यह घोल ऐसा मिश्रण बन गया जिसमें व्यक्तिगत भलाई और स्वार्थ अहम हो गए और सामूहिक या सामाजिक उत्थान की भावना कम होती गयी।
आजादी के बाद जिन राजनीतिक दलों पर स्वतंत्र भारत के निर्माण की जिम्मेदारी थी उन्होंने शुरुआत देश के सम्पूर्ण विकास की अवधारणा से की जिसमें सभी को बराबरी और न्याय सम्मत तरीकों से जीवन यापन का अवसर प्राप्त हो और देश के संसाधनों पर समान अधिकार हो।
इसमें व्यक्तिवादी सोच का प्रभुत्व न होकर सामूहिक सोच की प्रमुखता थी। जैसे जैसे देश विकास के पथ पर आगे बढ़ता गया, इस सोच में भी बदलाव आना शुरू हो गया और बजाय इसके कि सब को साथ लेकर चलने की धारणा और अधिक मजबूत होती, व्यक्तिगत स्वार्थ और उन्हें किसी भी तरीके से पूरा करने की इच्छा बलवती होती चली गयी और देश एक बार फिर विदेशी शासन की भाँति अमीरी और गरीबी के खाँचों में बँट गया।
मतलब यह कि मुट्ठी भर लोगों के पास सब कुछ और विशाल जन मानस के पास इतना भी नहीं कि अपनी और अपने परिवार की जरूरतों को इज्जत से पूरा कर सके।
इस प्रक्रिया में देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल कोंग्रेस में व्यक्तिवादी सोच के बढ़ने से एक के बाद एक लगभग सभी प्रदेशों में ऐसे दल बनने शुरू हो गए जिनकी सोच में हालाँकि समाज के सामूहिक विकास की अवधारणा प्रमुख थी लेकिन धीरे धीरे वे भी पारिवारिक दलों में ढलते चले गए।
कोंग्रेस का उदाहरण उनके सामने था जिसने अपने शासन काल में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के अनेक कीर्तिमान स्थापित किए। प्रगति करने के लिए योग्यता के स्थान पर चाटुकारी करने को प्राथमिकता मिलने लगी और देश के सामने अपने अस्तित्व और अस्मिता को बचाए रखने की चुनौती आ खड़ी हुई।
इस बात को समझने के लिए किसी भी क्षेत्रीय दल की उत्पत्ति का इतिहास और उसकी वर्तमान स्थिति देख लीजिए। सामाजिक कल्याण के उद्देश्य से एक व्यक्ति द्वारा अपनी राष्ट्रीय सोच को आधार बनाकर देश के विकास में अपनी भागीदारी तय करने के इरादे से बनाई गयी पार्टी किस प्रकार एक परिवार की पार्टी बन जाती है और सामूहिक भलाई के काम करने के स्थान पर केवल अपने परिवार के हित साधने का काम करने लगती है, यह जानने के किसी रॉकिट साइंस की जरूरत नहीं है।
वर्तमान पर टिका भविष्य
इतिहास से लेकर आज तक की छोटी सी झलक दिखाने का प्रयोजन यही है कि इस बार का आम चुनाव हमारे लिए एक ऐसी चुनौती है जिस पर हमारा भविष्य टिका हुआ है। हमारा सही निर्णय दुनिया का सिरमौर बना सकता है और गलत फैसला अंधेरे में ढकेल सकता है।
अपना वोट डालते समय केवल इतना ही देखना काफी नहीं है कि कौन सा उम्मीदवार या दल हमारी सड़क, बिजली, रोजगार, खेतीबाड़ी या उद्योग की जरूरतों को पूरा कर सकता है बल्कि यह देखना भी आवश्यक है कि हम विज्ञान, टेक्नॉलोजी, व्यापार, कृषि, परिवहन, संचार, सुरक्षा और सैन्य संसाधनों के विकास के क्षेत्र में विकसित देशों की पंक्ति में किस नीति और योजना के तहत खड़े हो सकते हैं।
जब कोई प्रत्याशी आपके पास वोट माँगने आए तो उससे इन विषयों के बारे में सवाल कीजिए, उसकी और उसके दल की इन विषयों पर जो ठोस योजना है उसके बारे में बताने को कहिए, उससे पूछिए कि क्या वह जातिगत समीकरणों के आधार पर आपस में सत्ता का बँटवारा करने के लिए चुनाव लड़ रहा है या उसके पास कोई पुख्ता कार्यक्रम भी है जिससे उसकी ईमानदारी और निष्ठा की परख की जा सके।
किसी भी दल या उम्मीदवार की जाँच पड़ताल इस आधार पर नहीं होनी चाहिए कि उसके बाप दादा या पुरखो ने कितने महान कार्य किए थे बल्कि उस पर भरोसा यह देखकर करना चाहिये कि उसकी वर्तमान नीतियों और योजनाओं तथा कार्यक्रमों में कितना दमखम है और वह किस तरह उनकी उम्मीदों को साकार कर सकता है। जब चुनाव की बिसात बिछ चुकी है, मोहरे अपनी अपनी जगह पर हैं तो फिर सोच समझकर अपनी चाल चलिए जिससे आपको अगले पाँच साल तक पछताना न पड़े। यही हमारा कर्तव्य है।
यह भूलना अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मारना होगा कि इतिहास अक्सर अपने को दोहराता है और वक्त भी कभी कभी ऐसी करवट लेता है कि सबकुछ किया धरा मिट्टी में मिल जाने के कगार पर आ जाता है। यदि फिर से चोरी चकारी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, भाई भतीजाबाज, कुनबा-परस्ती और व्यक्तिवादी सोच को नकारना है तो समझदारी से वोट डालने जाने की अवश्यकता है।
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