शुक्रवार, 29 मार्च 2019

मुफ्तखोरी की आदत नहीं है गरीबी का समाधान







भिखारीपन को बढ़ावा



यह देश का दुर्भाग्य और विडम्बना ही है कि जहाँ एक ओर भारत विश्व की चार महाशक्तियों में से एक है, विकसित देशों से ताल ठोककर मुकाबला करने को तैयार है, आर्थिक, सैन्य, विज्ञान और टेक्नॉलोजी से लेकर स्वदेशी तकनीक तक अनेक क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बन रहा है, वहाँ सत्ता में बैठा दल हो या विपक्ष सभी देशवासियों को दीनहीन, बेचारा और याचक मानने और बनाने का एक भी ऐसा मौका नहीं छोड़ना चाहते जिससे वे उनके वोटों की फसल काट सकें।


पहले भाजपा ने किसानों के खातों में मुफ्त के पैसे डालने की बात की और अब कोंग्रेस ने उन लोगों को जिन्हें गरीब बनाए रखने में ही उसका भला है, उन्हें ७२हजार रुपए बिना कोई काम किए देने की पेशकश की है ताकि कांग्रेस के लालच रूपी झाँसे में आ जायें और जीवन भर गरीब होने का ठप्पा लगाए रखने के लिए मजबूर हो जाएँ।


यह एक सच्चाई है कि अगर किसी को अपना पिछलग्गू बनाए रखना है तो उस पर से कभी भी गरीबी की चादर को हटने नहीं देना है और खैरात की तरह चंद सिक्के उसकी झोली में डालते रहना है ताकि वह हमेशा जरखरीद गुलाम बना रहे।


यह सत्ता का कैसा लोभ है और कैसा प्रजातंत्र है जो जनता को गरीब बने रहने के लिए उकसाता है, जबकि होना यह चाहिए कि ऐसा माहौल बने जिसमें चाहे थोड़े में गुजारा करना पड़े पर किसी की दया पर,चाहे सरकार ही क्यों न हो, न जीना पड़े।



कहते हैं कि अगर किसी से दुश्मनी निकालनी हो और उसके परिवार को समाप्त करना हो तो उसके प्रति हमदर्दी दिखाकर उसे और उसके बच्चों को मुफ्त में नशा करने की आदत डाल दो। सरकार हो या कोई राजनीतिक दल, बिना बात पैसा बाँटना और वह भी सरकारी खजाने से तो यह एक ऐसा जघन्य अपराध है जिसकी सजा चाहे कानून न दे सकता हो पर इसका परिणाम सामाजिक विकृति के रूप में जरूर सामने आता है।



उदाहरण के लिए सरकार गरीब, पिछड़े और दलित वर्ग की मदद करने के नाम पर अनिश्चितकालीन आरक्षण के रूप में, सब्सिडी के नाम पर या नकद राशि सीधे खातों में जमा कर उसके पैरों को बेड़ियों और हाथों को हथकड़ियों से जकड़ने का काम करती है जो उसे स्वावलंबी बनने, अपने पैरों पर खड़ा होने से रोकता है क्योंकि मुफ्तखोरी की आदत पड़ जाने पर उसका कुछ करने को मन ही नहीं करता।



कर्जमाफी भी इसी श्रेणी में आता है जो कर्ज लेने वालों की सोच को ही बेईमान बना देता है और उस व्यक्ति के पतन का एक कारण है।


यह एक तरह से ऐसा छलावा हे जिसमें भिखारी की तरह हाथ न फैलाने के बावजूद गरीब की झोली में भीख गिरती जाती है। कोई भी सरकार हो, विशेषकर कांग्रेस की जो हमेशा करदाताओं के पैसों से अपना स्वार्थ सिद्ध करने का काम करती रही है। यह करदाता वो हैं जो ज्यादातर नौकरीपेशा, व्यापारी, दुकानदार हैं जो समय पर अपना कर देते हैं और बदले में सरकार की लूट का शिकार बनते है जो उनके धन को खैरात में बांटने मेें लगी रहती है।


नीतियों का अकाल


सरकार हो या विपक्ष, जब उनके पास नीतियों का अकाल पड़ जाता हे तब ही वे इस तरह की योजनाएं बनाते हैं जिनका कोई सिर पैर नहीं होता लेकिन जनता उन्हें सच मानकर उन्हें अपना शुभचिंतक मानने की गलती अवश्य कर जाती है।


उदाहरण के लिए जब भाजपा यह जानते हुए भी कि विदेशों से काला धन देश में ला पाना लगभग असंभव है तो उसने 15 लाख रूपये हरेक के खाते में पहुंचाने की बात कर दी। इसी तरह कांग्रेस ने मनरेगा को लागू किया तो उसमें भी न्यूनतम कार्य दिवसों का रोजगार पैसा देने का प्रावधान कर दिया। यह मुहावरा कोई वैसे ही नहीं बना कि मनरेगा के तहत पहले गड्डा खोदने का पैसा मिलता है और फिर उसी गड्डे को भरने का।


अब क्योंकि गरीब आदमी इस छलावे को समझ नहीं पाता क्योंकि कमोवेश सभी सरकारों ने उसे पढ़ाई लिखाई से जहां तक हो सके, दूर रखने का काम किया, उसे कोई हुनर या व्यवसाय का शिक्षण और प्रशिक्षण देने की कोई ठोस नीति नहीं बनाई और उसके आत्मविश्वास को इस हद तक गिरा दिया कि वह जीवनभर अपने को गरीबी रेखा के नीचे ही रखने के लिए मजबूर हो गया।


सरकार और विपक्ष इस मामले में एक ही शैली के चट्टे बट्टे सिद्ध हुए हैं कि किस प्रकार सरकारी धन का दुरूपयोग कर अपने निजी स्वार्थ पूरे किये जाएं। मनरेगा में हो रहा भ्रष्टाचार इसकी ज्वलंत मिसाल है जिसमें फर्जी लाभार्थियों के नाम पर करोड़ों रूपया अधिकारियों और नेताओं की जेबों में चला जाता है।
कांग्रेस की नकद राशि देने की योजना भी मनरेगा की अगली कड़ी है जिसमें एक बार फिर फर्जीवाड़े की पूरी गुंजाईश है।


सार्थक नीतियां कैसी हों


अब हम इस बात पर आते हैं कि ऐसी नीतियां किस प्रकार बनें जिनसे गरीब की भलाई भी हो जाए और उसे लाचार बनाने के अपराध से बचा जा सके।

जहां तक किसान की बात है तो सीमान्त और मझौले किसान को उसकी खेती के लिए जरूरत के अनुसार बिजली, सिंचाई के लिए पानी, उन्नत बीज, खाद और कीटनाशक बिना उससे एक भी पैसा लिए मुहैया करा दिये जाएं। इससे वह इन चीजों के लिए कर्ज लेने से बच जाएगा, पूरा ध्यान खेतीबाड़ी की तरफ लगाएगा और अधिक से अधिक पैदावार करेगा।


फसल होने पर सरकार एक निश्चित और पूर्व निर्धारित दाम पर उससे उसकी उपज की खरीद करे और अपने नियंत्रण में उसे मंडियों तक पहुंचाए। मण्डी ंमें भी फसल की बिक्री की न्यायपूर्ण व्यवस्था हो और उपभोक्ता को एक निश्चित दाम पर अनाज, फल, सब्जी या अन्य उपज प्राप्त हो।


यह व्यवस्था केवल दो से तीन वर्ष तक कर दीजिए क्योंकि उसके बाद किसान इतना समर्थ हो जाएगा जिससे वह बिजली, पानी, खाद बीज और कीटनाशकों के दाम स्वंय दे सकेगा और आत्मनिर्भर होने की तरफ सधे कदमों से आगे बढ़ सकेगा।



कृषि व्यवस्था को मजबूत करने के साथ साथ गरीब आबादी को रोजगार देने के लिए ऐसी योजनाएं शुरू हों जिनसे एक ओर ग्रामीण और शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हो और दूसरी ओर ऐसे उद्योग और व्यवसाय स्थापित हों  जिनमें आधुनिक टेक्नालाॅजी का निवेश हो और उसके लिए प्रशिक्षित युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो।
स्वच्छ भारत अभियान एक ऐसी ही योजना सिद्ध हुई है जिसने न केवल रोजगार सृजन का कार्य किया बल्कि लोगों की सोच में भी परिवर्तन किया।


चीन की सीख


चीन हालांकि हमारा विरोधी प्रतिद्वंद्धी और झगडालू पड़ौसी रहा है लेकिन उसके अंदर कुछ अच्छाईयां भी हैं जिनसे वह आज विश्व बाजार में घरेलू और व्यापारिक वस्तुओं की खपत बढ़ाने में तेजी से सफल रहा है। आज मेड इन चाईना का दुनियाभर में बोलबाला है।

हम जब तब चीन की भारत विरोधी हरकत की प्रतिक्रिया चीनी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में करने लगते हैं। इसे जरा उलट कर देखिए। चीन ने विश्व बाजार पर कब्जा एक दिन में नहीं किया बल्कि यह उसकी नीतियों की सफलता है। चीन ने हमारी तरह अपनी आबादी को बोझ समझकर उस पर दया नहीं दिखाई, न उसने पैसों का लालच दिया और न ही उन्हें दीनहीन और भाचक समझा बल्कि उसने सुनिश्चित किया कि प्रत्येक व्यक्ति को देश के संसाधनों के विकास में अपना योगदान करना है,


किसी को मुफ्त या दान में कुछ नहीं मिलेगा बल्कि उसे उसकी उचित कीमत चुकानी होगी। जनता की भलमनसाहत का लाभ नहीं उठाने दिया जाता और सब को तय समय में वह काम करना पड़ता हे जो उसे सौंपा गया हो। उसे वहीं रहना होगा या उद्योग स्थापित करना होगा जहां सरकार और नीति बनाने वालों की नजर में उसकी जरूरत होगी। व्यक्ति की अपनी इच्छा के स्थान पर देश की जरूरत को प्राथमिकता दी जाती है।
अगर हमें चीन की सीख बुरी लगती हो तो अपने यहां के चाणक्य की ही बात समझ लें जिनके समय में भारत सोने की चिड़िया कहलाता था।



यदि भारत को आगे बढ़ना है तो देशवासियों को भिखारी, याचक, मुफ्तखोर न मानकर बराबरी का वास्तविक अधिकार देना ही होगा।

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