इन दिनों दूरदर्शन पर जो दो पुराने धारावाहिक फिर से प्रसारित हो रहे हैं, उनके बारे में यह एक हकीकत है कि जब पहले इन्हे दिखाया गया था तो दर्शक घरों में ही रहते थे और सड़कें, बाजार सूने हो जाते थे। आज भी इनके देखने वाले कम नहीं हुए हैं इसलिए लॉकडाउन में घर पर ही रहकर समय व्यतीत करने के अतिरिक्त कुछ सोचने, मतलब चिंतन मनन करने का भी समय मिल जाता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उस युग में जो सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थितियां थीं, आज भी वे देखी जा सकती हैं। लगता है भारत जैसा तब था, वैसा ही आज है अर्थात मनुष्य की सोच और उसकी समझ तथा कार्य शैली में कुछ खास बदलाव नहीं आया है।
आज का युग क्योंकि तर्क प्रधान अधिक है और संवाद तथा संचार के आधुनिक साधन हैं, इसलिए चलिए इन पर विचार करते हैं।
बड़ों की आज्ञा और नारी सम्मान
समय चाहे राम का हो या कृष्ण का, उनमें परिवार के बुजुर्गों यानी मातापिता, सगे संबंधी या जनमानस जो कह दें, उसे मानना अनिवार्य ही नहीं, बल्कि उसके सही गलत होने, कोई तर्क या बहस करने और अपनी बात रखने की तनिक भी गुंजाइश नहीं, बस पालन करना ही करना होता था।
राम को कैकई और दशरथ के किसी पुराने वचन को निभाने के लिए वनवास का हुक्म मिल गया और न तो राम यह पूछ सकते हैं कि मातापिता के अंतरंग क्षणों के बीच अगर कोई करार हुआ है तो उसका उत्तरदायित्व निर्वाह के लिए संतान को क्यों घसीटा जा रहा है और न ही यह कि इसे मानने या न मानने का जो परिणाम होगा उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा?
दृश्य बदलता है, महाभारत में युधिष्ठर जो अपने परिवार में सबसे बड़े हैं, भाइयों तथा जनता के सहयोग से इंद्रप्रस्थ का निर्माण कर लेते हैं, चक्रवर्ती सम्राट बन जाते हैं। सब ओर सुख शांति है, प्रजा अपने राजा से प्रसन्न है और राज परिवार भी उनका पूरा ध्यान रखता है।
पांडवों के सगे संबंधियों में धृतराष्ट्र और उनके पुत्र एक षड्यंत्र के तहत जुआ खेलने का आयोजन करते हैं। यहां तक तो चलिए मान लेते हैं कि मनोरंजन के नाम पर ही इस विनाशकारी खेल के लिए पांडवों की ओर से युधिष्ठर ने सहमति दे दी होगी।
योग्यता की कसौटी
यह सच था कि न तो युधिष्ठर और न ही उनके भाई इस खेल में पारंगत थे जबकि दूसरी ओर दुर्योधन भी इसे खेलना नहीं जानता था। अब युधिष्ठर ने तो अपने सर्व ज्ञानी होने के अहंकार के कारण किसी अन्य मंजे हुए खिलाड़ी को साथ लेने के स्थान पर स्वयं अनाड़ी होते हुए भी खेलना शुरू कर दिया और दूसरी ओर दुर्योधन ने अपना अनाड़ीपन स्वीकार करते हुए इस खेल में पारंगत खिलाड़ी शकुनि को खेलने के लिए आगे कर दिया।
जब दांव लगने लगे तो युधिष्ठर ने अपनी प्रजा की तो छोड़िए, अपने भाइयों और अपनी पत्नी तक से कुछ नहीं पूछा और सब को एक के बाद दांव पर लगाते गए और अपने बुद्धि, विवेक से हीन होने और अनाड़ी होने के कारण सब को हारते गए।
ऽ प्रश्न यह है कि क्या शासक द्वारा बिना अपनी प्रजा की मर्जी जाने उसे दांव पर लगाया जा सकता है ? दूसरा प्रश्न यह है कि क्या छोटे भाई और पत्नी बड़े भाई की निजी संपत्ति हैं, मतलब उनकी कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं है कि वे पूछ सकें कि, हे भाई या पति महोदय, आप बर्बाद होना चाहें तो हो सकते हैं, पर हमें बर्बाद करने का अधिकार आपको किसने दिया?
लेकिन द्रौपदी को छोड़कर किसी भी भाई ने यह प्रश्न नहीं किया, यहां तक कि अपने वस्त्र हरण का प्रयत्न किए जाने तक कोई उसकी हिमायत लेने नहीं उठा और यह तो भला हो कृष्ण का कि वे अपनी सखा या मित्र की पुकार पर उन्होंने उसे बचाने का प्रबंध कर दिया वरना द्रौपदी तो बुरी तरह लुट ही चुकी थी।
युधिष्ठर अपने पुरुष होने के अहंकार से इतना पीड़ित थे कि द्रौपदी के द्वारा सब कुछ लौटा लिए जाने पर भी फिर से जुआ खेलने लगे और दोबारा हार गए और वनवास तथा अज्ञात वास के भागी बने। उनके कारण ही उनके भाइयों और द्रौपदी की कष्ट गाथा फिर से शुरू हो गई।
यह उनका पुरुषत्व ही बोल रहा था कि वन में द्रौपदी द्वारा कुछ कहने पर वे उसे अपने मायके जाने के लिए कह देते हैं। यही नहीं गंधर्वों द्वारा दुर्योधन को पकड़ लेने पर अपने भाइयों को उसे छुड़ाने भेजते हैं और जब जयद्रथ ने द्रौपदी के हरण की कोशिश की तो वे उसे भी अपना रिश्तेदार होने के नाते मामूली दंड देकर छोड़ देते हैं और कोई उनसे प्रश्न नहीं कर सकता क्योंकि वे सबसे बड़े हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या युधिष्ठिर को जुआ खेलने से इंकार नहीं कर देना चाहिए था, जयद्रथ को कठोर दण्ड नहीं देना चाहिए था और धृतराष्ट्र के आवरण में दुर्योधन की महत्वाकांक्षाओं का शुरू में ही अंत नहीं कर देना चाहिए था ?
शासक का कर्तव्य
आज की स्थिति में देखें तो प्रजातंत्र होने के बावजूद अगर शासक निरंकुश हो जाए तो वह अपने स्वार्थ के लिए क्या कुछ करने को तैयार नहीं हो जाता ?
अब जरा नारी के सम्मान, उसके गौरव और प्रतिष्ठा की बात करें तो लगता है कि रामायण और महाभारत के युग से लेकर वर्तमान काल तक उसकी स्थिति में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ है।
राम द्वारा अपने रामराज्य में एक व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी को इसलिए छोड़ दिया जाता है क्योंकि वह कोई भी विकल्प न होने के कारण एक रात अपने घर नहीं लौट सकी थी।
राम को अपने राजा होने के कारण ऐसा नियम बनाना चाहिए था कि बिना किसी अपराध के केवल अपने पुरुष होने के कारण कोई भी पति अपनी मर्जी से अपनी पत्नी को बेसहारा नहीं कर सकता।
हालांकि उन्होंने खोजबीन कर यह पता कर लिया था कि उनके शासन में स्त्री का स्थान वह नहीं है जो होना चाहिए। उन्होंने न केवल स्त्री को उसकी गरिमा वापिस दिलाने और उसे बराबरी का अधिकार दिलाने के प्रति कोई नियम कानून नहीं बनाया बल्कि लोगों द्वारा उनके द्वारा अपनी पत्नी सीता को स्वीकार करने पर आपत्ति जताने के प्रतिकार स्वरूप सीता का ही त्याग करना मान लिया जबकि वह गर्भवती भी थीं।
प्रश्न उठता है कि क्या उस काल में भी स्त्री हमारे देश में स्वतंत्र नहीं थी, अपने बारे में स्वयं निर्णय लेने के स्थान पर समाज और अपने पति की सोच पर निर्भर थी।
क्या कुछ बदला है ?
आज भारत में अनेक कानूनों के बावजूद स्त्री का शोषण होता है, उससे छेड़छाड़ से लेकर उसका शील हरण तक होता है और उसके निर्दोष होने के बावजूद समाज से लेकर परिवार तक उसे ही सजा देने को तत्पर रहता है तो क्या यह समझ लिया जाय कि तब से लेकर आज तक कुछ भी नहीं बदला है।
यह तब भी होता था कि हम अपनी संतान को जो शिक्षा दें, वह वहीं ग्रहण करे, हम जो उसे बनाना चाहें, वह वही बने और कहीं उसने अपनी इच्छा और मर्जी के हिसाब से शिक्षा लेने की बात की या अपने मन का रोजगार या व्यवसाय करने की बात की तो वह माता पिता और परिवार का दुश्मन नंबर एक हो गया।
पिछले दिनों एक सत्य घटना पर आधारित फिल्म सांड की आंख आई थी जिसमें घर की बेटियां तो दूर, दादियां तक अपनी मर्जी से कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र नहीं थीं। वे चोरी छिपे न केवल स्वयं अपने मन की बात सुनती हैं बल्कि अपनी पोतियों को भी प्रोत्साहित करती हैं कि वे जो उनका मन चाहे, उन्हें करना चाहिए।
अब यहां भी पुरुष का पौरुष हावी हो जाता है जिसका अंत वृद्ध हो चुकी दादियों तक को पिंजरे में बंद रहने में ही उनकी भलाई कहकर चुप कराने की कोशिश से होता है। परिणाम वही कि आत्म सम्मान जाग उठता है और दादियां अपने ही पुरुषों के अभिमान को ठिकाने लगा देती हैं।
बदलाव क्यों न हो ?
भारत में जब यह लगता है कि मूलभूत प्रश्न वैसे ही हैं जैसे रामायण और महाभारत के काल में थे तो क्या यह सोचने का समय नहीं आ गया है कि विश्व में हो रहे परिवर्तन को सामने रखते हुए हमें भी उनमें बदलाव करना चाहिए।
हमारे यहां संतान पर उसके बड़े और अपने पैरों पर खड़ा हो जाने पर भी बड़े बुजुर्ग उन्हें अपने आधीन होने का भ्रम पाले रहते हैं और इसे सिद्ध करने के लिए उन पर तरह तरह के अंकुश लगाने से भी नहीं चूकते।
क्या ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए, जैसी कि अनेक प्रगतिशील देशों में है, कि उन्हें युवा होते होते और उनकी शिक्षा पूरी हो जाने पर उन्हें अपनी ही पहनाई गई बेड़ियों से मुक्त कर समाज में अपना योगदान करने के लिए बिना उनसे किसी भी तरह की अपेक्षा रखे छोड़ दें।
स्त्री को हम तब तक स्वतंत्र सोच और अपनी किस्मत का नियामक नहीं बना सकते जब तक हम उसके रहन सहन, आने जाने और अपनी मर्जी से अपने बारे में फैसला लेने के लिए खुला नहीं छोड़ देते।
जो यह सोचते हैं कि ऐसा करने से भारतीय संस्कृति और प्राचीन सभ्यता का बंटाधार हो जाएगा तो उन्हें सीता के वन गमन और द्रौपदी के चीर हरण के बारे में सोचना चाहिए कि क्या वह युक्तिसंगत था ?
भारत
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