शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

सोने में निखार उसके भट्टी में तपने के बाद









मन में डर छुपा है, दिल में घबराहट बढ़ रही है, अतीत और भविष्य की बजाय वर्तमान पर विश्वास नहीं हो रहा कि अगले ही क्षण क्या होने वाला है। इस अनिश्चय की हालत में अपने अंदर गहराई तक पहुंचने की कोशिश में लगी हीनभावना को रोकने और उसे स्वयं पर काबू करने में असफल बनाना ही वक््त की जरूरत है। यही सोचने को मन करता है कि हम होंगे कामयाब

मन में धैर्य
शरीर में स्फूर्ति
हृदय में विश्वास
एक स्वर में
सुख शांति का आह्वान
रोग शक्ति को हराने का संकल्प
स्वस्थ रहने का विकल्प
घर में रहकर करें
चिंतन और मनन
योजना बनाएं
आने वाले समय में
कैसे बनाए रखना है
अपना व्यापार और रोजगार
नए उद्योग नए विचार
करेंगें नए जीवन का संचार
प्रकृति ने नदियों में बहाई
निर्मल जल की धार
वन झूमने लगे फिर एक बार
पर्वत राज दिखाने लगे
अपनी दिव्य छटा


इतिहास पर एक नजर

भारत जब आजाद हुआ तब हमारे सामने जिस तरह कि समस्याएं उत्पन्न होने लगीं थीं उनमें सबसे बड़ी यह थी कि कैसे देशवासियों को गुलामी की मानसिकता से बाहर निकाला जाए। दसियों वर्ष बाद भी लोग कहते मिल जाते थे कि अंग्रेज का शासन आजाद भारत के शासकों से अच्छा था, हालांकि कोई यह कभी नहीं चाहता था कि अंग्रेजी शासन फिर से आ जाए।
बस यही सोच थी जिसने इस देश को कभी कमजोर पड़ने नहीं दिया।

आज विश्व जिस बीमारी से जूझ रहा है और उसके नतीजे के तौर पर दुनिया भर में भारी मंदी की भविष्यवाणी की जा रही है, वह वैसा ही है जैसा कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे थे। जिन देशों ने इसे गंभीरता से लिया और इससे निपटने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए तैयार किया वे जल्दी ही इतने सक्षम हो गए कि अपनी मिसाल खुद बन गए।

उदाहरण के लिए विश्व युद्ध के बाद इतिहासकार और अर्थशास्त्री इस बात का आकलन करने लगे कि जो देश सबसे ज्यादा बर्बाद हुए हैं, वे कब तक इससे उबर सकेंगे। एक अनुमान में आंकड़ों के अनुसार बताया गया कि सबसे अधिक बर्बादी झेल रहे देशों में जर्मनी और जापान का नंबर आता है।

भविष्यवाणी की गई कि ये देश इस बुरी तरह इतने  बर्बाद हो चुके हैं कि अगले बीस साल तक इनका कोई भी नागरिक एक नई कमीज नहीं ले सकता और चालीस वर्ष तक नया सूट नहीं सिलवा सकता।

स्थिति डरावनी थी लेकिन इन देशों के शासकों ने इसे इस प्रकार संभाला कि केवल बीस वर्ष में ही इतने सशक्त हो गए कि वे अपने पहने हुए कपड़े पुराने हो जाने के कारण उन देशों को दान करने लगे जहां गरीबी और भुखमरी अपना तांडव दिखा रही थी। उस समय भारत भी लगभग इसी श्रेणी में आता था। जो लोग उस दौर के गवाह है वे जानते होंगे कि तब दिल्ली जैसे बड़े शहरों के बाजारों में ये विदेशी कपड़े बहुत सस्ते दाम पर बिक रहे थे और लोग इन्हें खरीदकर गुजारा कर रहे थे क्योंकि नए कपड़ों की कौन कहे, अधिकतर आबादी के लिए खाने के भी लाले पड़े थे।

अतीत से सीख



इस तुलना से एक बात साफ थी कि शासन और प्रशासन जब मजबूत और ईमानदार तथा किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के खिलाफ होता है तब ही वह देश अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा हो सकता है और किसी भी संकट को पार कर सकता है। कहना न होगा कि हमारे देश में आजादी के बाद से ही इस बात की होड़ सी लग गई कि किस प्रकार सभी साधनों को जो कि पहले ही सीमित थे, उन्हें कुछ मुठ्ठी भर लोगों द्वारा समेट लिया जाय। जमाखोरी और कालाबाजारी का जो सिलसिला 50 और 60 के दशक में शुरू हुआ, वह घटना तो दूर निरंतर सुरसा के मुंह की तरह विशाल होता गया।

लोग कहने लगे थे कि जिस कछुए की गति से हमारा देश बढ़ रहा है, उतना तो वह बिना किसी शासक के भी स्वयं आगे बढ़ सकता है। इस असंतोष का परिणाम भी सामने आने लगा और जनता के सामने विद्रोह के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं बचा।

आज इन पुरानी बातों की तरफ ध्यान दिलाने का अर्थ डरना या डरावना माहौल बनाना नहीं है बल्कि यह है कि वर्तमान कर्णधार और विपक्ष के लोग इस बात को समझ लें कि जनता सब जानती है और समय किसी को क्षमा नहीं करता।

जिस बीमारी ने बड़े बड़े देशों के छक्के छुड़ा दिए हैं और उनकी अर्थव्यवस्था को तहस नहस कर दिया है, उनके मुकाबले हमारे जैसे देश कहां टिक पाएंगे, यह बात कुछ निराशावादी सिद्ध करने में लगे हैं । इसके विपरीत जो लोग जर्मनी और जापान का उदाहरण दे रहे हैं, वे पूरी तरह आश्वस्त हैं कि इस मुसीबत से बाहर निकलने में हमारा आत्मविश्वास ही हमारी सबसे बड़ी पूंजी है।

यही वर्तमान शासन की कसौटी उनके और देश के लिए है कि वे आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर कितना खरा उतरते हैं


स्वर्णिम भविष्य की नींव



जैसा कि कहावत है कि किसी भी विपत्ति से बाहर निकलने के लिए उसी में उसका रास्ता छिपा होता है, उसी प्रकार वर्तमान परिस्थिति में भी अनेक ऐसे पथ हैं जिनकी पहचान कर ली जाए तो देश भट्टी में तपकर निकले सोने की तरह दुगुनी आभा से चमक सकता है।

जो रास्ते देश के सामने हैं, उनमें सबसे बड़ा रास्ता हमारी हर्बल संपदा की दुनिया भर में चर्चा होना है।  इस विरासत और जड़ी बूटियों के संसार का खजाना हमारे पास है जिसका इस्तेमाल औषधियां बनाने के लिए जो अभी बहुत कम हो रहा है, उसे बढ़ाकर कई गुना करने पर भारत इस दिशा में अग्रणी हो सकता है।

अमेरिका, ब्राजील और दूसरे देशों द्वारा भारत के प्रति कृतज्ञता दिखाने को आर्थिक लाभ में बदलने और दवाईयों के क्षेत्र में पूरी दुनिया के इस बाजार पर कब्जा जमाने का इससे बेहतर समय फिर नहीं आयेगा।

सरकार को अभी से वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं और इस क्षेत्र के उद्यमियों के लिए नीति बनाने का काम शुरू कर देना चाहिए।

आज हमारे देश में अधिकतर औद्योगिक इकाईयों के बंद होने, कल कारखानों से जहरीले रसायन बाहर न निकलने का प्रभाव हमारी नदियों के जल और अन्य जल संसाधनों पर बहुत ही तेजी से उनके निर्मल और शुद्ध होने के रूप में सामने आया है। इसी प्रकार वायु पर भी इतना अधिक पड़ा है कि वह काफी हद तक प्रदूषण मुक्त हो गई है।

प्रकृति के इन दोनों अद्भुत स्रोतों जल और वायु के प्रदूषण मुक्त होने का दूरगामी लाभ उठाया जा सकता है। सूर्य, पवन और जल से ऊर्जा प्राप्त करने की यूनिटों को बढ़ावा देकर और सभी उद्योगों को जल और वायु को प्रदूषित करने वाले संयंत्रों के स्थान पर ऐसे उपकरण लगाना अनिवार्य करने के लिए अभी से कदम उठाना जरूरी है जिससे दोबारा हमारा जल और प्राण रक्षक वायु दूषित न हो सके।

इससे हम यूरोप की तरह पीने का साफ पानी और सांस लेने के लिए शुद्ध हवा का मिलना सुनिश्चित कर सकेंगे।

इसी तरह स्वास्थ्य को मूलभूत अधिकारों की सूची में रखकर प्रत्येक नागरिक की सेहत की रक्षा कर सकेंगे।
महामारी से तो एक न एक दिन और वह भी बहुत शीघ्र निजात मिल ही जाएगी लेकिन जरूरी है कि उसके बाद की योजना बनाने पर भी अभी से सरकार काम करना शुरू कर दे तो यह सोने पर सुहागा होगा।


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