हमारे देश में अक्सर राज्य या केंद्र में सत्ताधारी सरकारें अनेक घोषणाएं, लोक लुभावन योजनाएं, भविष्य में न जाने कब पूरी होने वाली परियोजनाओं के शिलान्यास, आसमान के तारे तोड़ कर जनता के हाथ में रख देने वाले वायदे तथा और भी न जाने क्या क्या करती और रखती रहती हैं।
कुछ तो वास्तव में कल्याणकारी होती हैं लेकिन जब ऐसी ऐसी बातें जिनका कोई सिरपैर ही गले से न उतरता हो तो आम जनता की हालत या तो चेहरे पर नकली मुस्कान लाने या क्रोध में भरकर कोसना शुरू करने या फिर चादर लपेटकर सो जाने में ही अपनी भलाई समझने जैसी हो जाती है।
क्या कभी इस ओर भी ध्यान जाता है कि इन अच्छी हों या खराब योजनाओं को लागू करने की जिम्मेदारी किस पर होती है ? जी हां, हमारा मतलब उस तबके से है जिसे नौकरशाही, ब्यूरोक्रेसी या फिर सीधे सीधे अफसरी कहा जाता है और यह तंत्र इतना व्यापक और जलेबी की तरह उलझा है कि इसकी गुत्थी सुलझाने में साधारण नागरिक की तो छोडि़ए, मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री तक को नाकों चने चबाने पड़ जाते हैं।
नौकरशाही
का जन्म
हमारे देश में इसकी पैदाइश पहली बार अंग्रेजों के जमाने में हुर्इ और फिर दोबारा स्वतंत्र भारत में इसका नाम बदलकर इसमें भारतीय शब्द जोड़कर इसका नया जन्म मान लिया गया जबकि उनकी कुंडली और ग्रह दशा में कोर्इ परिवर्तन नहीं हुआ।
इस नौकरशाही के बारे में जॉर्ज फर्नांडिस ने कहा था कि इनकी दशा सौरमंडल में
घूमते ग्रहों की भांति होती है जिसमें अनंत काल तक सरकारी योजनाओं को अमल में लाने
वाली फाइलें निरंतर चक्कर लगाती रहती हैं और केवल ये ही जानते हैं कि उन फाइलों को
कैसे धरती पर उतारा जा सकता है, वरना उनके भाग्य में हमेशा के लिए
विलीन हो जाना ही लिखा होता है, चाहे कोर्इ कितनी भी ताकतवर सरकार हो,
पक्ष
या विपक्ष हो या फिर वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी जैसा सख्त और निर्णायक कदम उठाने की हिम्मत रखने वाला
राजनेता ही क्यों न
हो!
कुछ
उदाहरण
देश में निर्भया जैसे नृशंस कांड न हों, उसके लिए सरकार ने निर्भया फंड बनाया लेकिन उसके इस्तेमाल की उम्मीद जिनसे थी, उन्हें यह पसंद नहीं आया होगा, इसलिए आज हाथरस, नोएडा, बलरामपुर और दूसरी जगहों पर बलात्कार, नारी उत्पीड़न और महिलाओं के साथ जोर जबरदस्ती की वारदातें कम होने के बजाय बढ़ ही रही हैं। इस फंड से प्रशासनिक खर्चों के अतिरिक्त कुछ और शायद ही किसी राज्य या केंद्र की सरकार ने अब तक किया हो, जिस उद्देश्य के लिए यह बना था उसे लेकर तो कतई नहीं।
नोएडा में तीन साल पहले नए औद्योगिक क्षेत्र के रूप में सेक्टर 155 में प्लॉट दिए गए थे और एक वर्ष में इसे पूरी तरह फल फूल जाना था लेकिन आज भी वहां वीरानी का आलम है क्योंकि अधिकारियों ने जरूरी सुविधाएं तक आज तक प्रदान नहीं कीं, इसी तरह अब नई फिल्म सिटी की घोषणा हुई है जिसका भगवान ही मालिक है क्योंकि सेक्टर 16 ए की फिल्म सिटी की दुर्दशा सब जानते हैं।
इसी तरह किसी भी राज्य की खोजबीन कर लीजिए, अनेक ऐसी एक दो नहीं सैकड़ों घोषित योजनाएं मिल जाएंगी जो जनता का मुंह चिढ़ा रही होंगी और पब्लिक को अफसोस होता होगा कि वे क्यों सरकारों के कामों को पूरा करने के लिए अपनी मेहनत का पैसा टैक्स आदि के रूप में दे रहे हैं।
परिवर्तन
मंजूर नहीं
पहले यह समझा जाए कि अफसरी आती कहां से है। यह एक प्रतियोगी परीक्षा पास करने से शुरू होती है जिसे पास करना आज आधुनिक संचार साधनों और टेक्नोलॉजी के युग में कोर्इ बहुत कठिन काम नहीं है और दूसरा पड़ाव यह कि आधे पौने घंटे के इंटरव्यू में उम्मीदवार की काबिलियत कि वह अफसर बनने के योग्य है, का फैसला कर लिया जाता है।
प्रश्न यह है कि क्या इससे यह तय किया जा सकता है कि कोर्इ इतना काबिल है कि देश चलाने की जिम्मेदारी उसे दी जा सके? हालांकि प्रशिक्षण देकर मतलब ठोक पीट कर उसे किसी आकार में गढ़ने की कोशिश की तो जाती है लेकिन यह तय करने का कौन सा मापदंड है कि कच्चा माल जंग लगा लोहा है या चमकाया जा सकने वाला सोना। खेद है कि आजतक कोर्इ ऐसी व्यवस्था नहीं हुर्इ कि जिन पर देश का भविष्य संवारने का भार है, उनके चुनाव के लिए परंपरा से हटकर कुछ सोचा जा सके।
वर्तमान सरकार ने इस दिशा में कोशिश की लेकिन उसमें कामयाबी नहीं मिली। यहां तक कि प्रशासनिक पदों पर सरकार के बाहर काम कर रहे प्रतिभाशाली लोगों को नियुक्त करने के प्रयास हुए लेकिन पहले से जमी हुर्इ लॉबी ने उन्हें आने और काम करने ही नहीं दिया।
सरकार ने भ्रष्टाचार पर लगाम, समय की पाबंदी, अफसर की जिम्मेदारी तय करने से लेकर ट्रांसफर, सस्पेंशन से लेकर नौकरी से निकाल दिए जाने तक की कार्यवाही की लेकिन अफसरी का परनाला उसी प्रकार बहता रहा, उसमें कॉस्मेटिक बदलाव तो हुआ दिखार्इ दे सकता है लेकिन कोर्इ ठोस परिवर्तन नहीं हुआ।
कार्य
प्रणाली क्या है
जिन लोगों का ब्यूरोक्रेसी से वास्ता रहा हो, जिन्होंने स्वयं अफसरी का स्वाद चखा हो या फिर जिन्हें इस कौम से काम लेने का मौका मिला हो, वे बता सकते हैं कि कोई योजना कैसे सिरे चढ़ती है और कौन सी अलमारियों में धूल फांकती रहती है।
इनकी कार्यप्रणाली तीन तरह से काम करती है सबसे पहले अपने राजनीतिक आका का मूड भांपा जाता है और यह देखा जाता है कि जिस योजना के पूरा करने की जिम्मेदारी उन पर डाली जाने वाली है, उसमें नेताजी का कौन सा हित समाया हुआ है, मसलन जनता को लॉलीपॉप दिखाना है, वायदों के जाल में फांसना है या वास्तव में उस पर अमल करना है।
दूसरा कदम यह देखना होता है कि इस योजना, परियोजना के पूरा होने में उनके व्यक्तिगत से लेकर पूरी लॉबी के हितों पर तो कोर्इ खतरा नहीं है। इसके साथ ही मान लीजिए कि आई आर्इ ए एस अधिकारी है तो वह यह देखेगा कि इसका असर दूसरी प्रशासनिक सेवाओं जैसे पुलिस, विदेश सेवा या अन्य पर क्या पड़ सकता है, मतलब कि उनके हितों के साथ तो कोई टकराव या समझौता नहीं होगा।
इसके बाद तीसरे कदम के रूप में यह तय होता है कि इसमें उनकी कितनी आर्थिक मदद यानी रिश्वत मिलने की संभावना, आकाओं की प्रशंसा यानी पीठ ठोकना, जनता पर उनके कर्मठ, ईमानदार होने और भलमनसाहत का असर पड़ता दिखाई देना, क्षेत्र में उनका दबदबा बढ़ना और वे क्या किसी भी तरह की हैसियत रखने वाले को अपने आगे झुका सकते हैं ?
जब यह सब शीशे की तरह साफ यानी पारदर्शी हो जाता है तब जाकर यह तय होता है कि जनता की भलार्इ के नाम पर की गर्इ सरकारी घोषणा या योजना पर अमल करना है या उसे सरकार बदलने तक लटका कर रखना है क्योंकि मंत्री से लेकर प्रधान मंत्री तो आते जाते रहते हैं लेकिन उनकी नौकरी तो पक्की और रिटायर होने या उसके बाद भी जोड़तोड़ से कायम रहने वाली ही है।
अब यह समझ में आ गया होगा कि चींटी की चाल से चलना क्या होता है, अनपढ़, कम पढ़े लिखे या फिर विद्वान नेता को कैसे अपने इशारों पर चलाया जा सकता है, कोर्इ कितना भी दिग्गज हो, उसे भ्रम में कैसे रखना है, यह काम इन लोगों को बखूबी करना आता है।
ऐसे लोग विरले ही हैं जो अपने पद की गरिमा और देश की प्रतिष्ठा के साथ कोई समझौता नहीं करते, उनके लिए व्यक्तिगत स्वार्थ का कोई अर्थ ही नहीं होता, कोई कितना भी सनकी नेता हो, सही बात कहने और करने में कतर्इ कोताही नहीं करते और न ही ऐसे लोगों को बर्दाश्त करते हैं जिनके लिए अपने मतलब साधना ही प्राथमिकता होती है। कदाचित इन मुठ्ठी भर लोगों पर ही हमारा भविष्य टिका है वरना सरकारी हमाम में सब नंगे ही नंगे हैं।
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