शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

सवर्ण तथा दलित के बीच तनाव का कारण बात का अफसाना बनना है

 

चाहे कुछ भी कहा जाए और कितनी भी आलोचना की जाय इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि हमारे देश में सदियों से चली आ रही वर्ण व्यवस्था जातीय संघर्ष के सबसे घिनौने रूप में कायम है। हजारों साल पहले जब यह व्यवस्था बनी थी, तब इसका औचित्य हो सकता है लेकिन आज यह न केवल गैर जरूरी है बल्कि पिछड़ेपन का प्रतीक भी बन गई है।

ब्रिटिश शासन ने इसे समझा और जातियों को आपस में लड़वाने का खेल रचकर अपना मतलब साधते रहे। आजादी के बाद जितने भी दलों की सरकारें आईं उन्होंने भी जातियों के बीच भेदभाव का फायदा उठाते हुए उनके बीच और भी गहरी खाई बनाकर अपना उल्लू साधने का काम किया।

यह ऐसा ही था कि जैसे चोर से कहा जाए कि तू चोरी कर और शाह से होशियार रहने के लिए कहा जाय जिसका अर्थ यह है कि दोनों को आपस में लड़वाने का पूरा इंतजाम कर दो।  बिल्लियों की लड़ाई सुलझाने के लिए बंदर बन कर न्याय करने का ऐसा ढोंग रचा जाए कि दोनों की गर्दन अपने हाथ में हो ताकि जिसे जब चाहे तब तोड़मरोड़कर अपने स्वार्थ की पूर्ति की जा सके।

सवर्ण और दलित

सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं ने वर्ण व्यवस्था के मूल स्वरूप को बिगाड़कर सवर्ण और दलित, दो ऐसे वर्ग पैदा कर इस तरह के हालात बना दिए कि दोनों ही एक दूसरे को न तो फूटी आंख सुहाएं और न ही एक का काम दूसरे के बिना चल सके।

वर्ण व्यवस्था की चारों जातियों ने मिलकर एक पांचवीं जाति के रूप में दलित जाति का निर्माण कर दिया।  उसमें गरीब, अनपढ़, बेसहारा और सदियों से अन्याय का शिकार रहे लोगों को डाला और पहले से स्थापित अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग शामिल कर एक नई वर्ण व्यवस्था बना दी।

इस तरह एक नए समाज का निर्माण करने के बहाने से एक ऐसी विषबेल की खेती शुरू कर दी जिसकी चपेट में पूरा समाज आ गया।  दलित वर्ग के कुछ दबंग लोग इनके नेता बन कर समाज में अपना रोबदाब बिठाने लगे और एक बड़ा वोटबैंक बनाकर सवर्ण वर्ग को धमकाने से लेकर उन्हें ब्लैकमेल तक करने लगे।

सवर्ण जातियों को यह जल्दी ही समझ में आ गया और उन्होंने इन जातियों के शक्तिशाली और इनमें से जो लोग शिक्षा प्राप्त कर प्रतिभाशाली बन गए थे, उन्हें अपने साथ मिला लिया। अब मैदान तैयार था और जातीय संघर्ष का एक नया तानाबाना बनकर खड़ा हो गया।

ये लोग जरा सी बात का बतंगड़ बनाकर, कहीं भी कोई और कैसी भी घटना होने पर जिससे समाज में अव्यवस्था फैलाने से लेकर दंगे तक कराए जा सकते हों, भड़काने का काम करने लगे।  इसमें असामाजिक तत्व भी कूद गए जिसका परिणाम बड़े पैमाने पर हिंसा, आगजनी, तोड़फोड़ के रूप में निकलने लगा।

निशाने पर कौन

एक सोची समझी रणनीति के तहत सबसे अधिक निशाना उन लोगों को बनाया जाता है जिनके पास न पैसा है, न कोई पक्का रोजगार।  शिक्षा के नाम पर न के बराबर सुविधा होने के कारण ये लोग समझ ही नहीं  पाते कि उनके साथ हिंसा से लेकर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न जिसमें बलात्कर भी शामिल है, क्यों हो रहा है ? बजह यह कि इस सब के पीछे ज्यादातर लोग वे ही हैं जिन्हें ये अपना शुभचिंतक और अपना मानते हैं,  जिनके घरों, खेत खलिहानों और कल कारखानों में अपना खून पसीना बहाते हैं और यह सब करने पर भी केवल उनके पैरों की धूल बने रहने में ही संतोष अनुभव करते हैं।

दुःख की बात यह है कि दलित वर्गों में जो शिक्षित है, वे अपने ही लोगों को दीनहीन बनाकर रखने में ही अपना भला समझते हैं। दलितों के बीच से निकला उन्हीं का एक वर्ग उनका उत्पीड़न करने लगता है। इनके साथ सवर्ण वर्ग के लोग सहानुभूति से अधिक दयाभाव  दिखाते हुए उन्हें उकसाते रहते हैं जिससे जो पहले से ही दबा कुचला है वह और भी अधिक दयनीय हो जाता है।

सरकारों का पक्षपात

समाज की इस व्यवस्था को कायम रखने में सरकार भी अपना योगदान करती  है । इसका उदाहरण है कि आज तक कोई ऐसा कानून न बन पाना जो दलितों को उनके मूलभूत अधिकार ही दिलवा सके और उन्हें दबंग दलित हो या सवर्ण वर्ग के मठाधीश और सत्ताधारी, उनसे उनकी रक्षा कर सके।

जो दलित हैं, हम उनसे काम लेते समय उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि मानो वे अस्पृश्य हो। उदाहरण के लिए शहरों में घरेलू काम करने के लिए रखे गए लोगों के कपड़े, बर्तन और टॉयलेट तक बिल्कुल अलग तय कर दिए जाते हैं। अगर वे जिज्ञासा के कारण घर की किसी चीज को हाथ भी लगा दें तो तूफान आ जाता है जबकि ऐसी वस्तुओं की साफ सफाई की जिम्मेदारी इन्हीं की होती है। मतलब यह कि ताला कुंजी सब तेरा पर किसी चीज को इस्तेमाल करना तो दूर, हाथ तक लगाया तो खैर नहीं।

यह कैसी विडम्बना है कि एक ओर हम विश्व गुरु बनने का सपना देखते हैं और दूसरी ओर अपने ही देश की एक चैथाई आबादी को नर्क जैसी जिन्दगी देने में भी कोई बुराई नहीं समझते।

देश में जो दलित उत्पीडन और उनकी महिलाओं के साथ दरिंदगी तक की वारदातें होती है, उसके पीछे कौन लोग हैं, उनकी सोच क्या है, इसके उदाहरण प्रतिदिन मिलते रहते हैं। दलितों को अपनी मिल्कियत समझने वालों का बस चले तो उन्हें इंसान का भी दर्जा न दे।

अगर कहीं किसी सवर्ण और दलित जाति के युवा वर्ग के बीच मैत्री, प्रेम संबंध और भाईचारा स्थापित हो गया तो समझिए कि आज के आधुनिक और वैज्ञानिक युग में भी यह मानो कोई ऐसा अपराध हो गया जिसकी कोई माफी नहीं, केवल सजा है जो अक्सर दलित पक्ष को दी जाती है।

ऑनर किलिंग के पीछे यही रहस्य है कि सवर्ण हो या दलित परिवार, उसे यह तो मंजूर है कि दोनों पक्षों में जीवन भर दुश्मनी बनी रहे लेकिन यह स्वीकार नहीं कि यदि दोनों में से किसी भी पक्ष का लड़का या लड़की एक दूसरे से प्रेम संबंध रखता है तो दोनों जीवन भर साथ रह सकें।

समाज और सरकार के लिए यह चुनौती है कि वह ऐसे प्रसंग जिनसे जातियों का एकीकरण होता है, उनमें शत्रुता के स्थान पर मित्रता का वातावरण बनता है, उन्हें प्रोत्साहन और विघटनकारी ताकतों का दमन कर वास्तविकता स्वीकार करने का साहस दिखाते हुए एक नई शुरुआत कर सार्थक प्रयास करें। 

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