शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

भावनाओं को भड़काने का खेल खतरे की घंटी है

 

भावनाओं को लेकर आम तौर पर किसी भी व्यक्ति की सोच दो प्रकार की होती है, एक तो वे जो किसी के कुछ भी कहने पर ध्यान देने या मानने से पहले उसे तर्क की कसौटी पर कसते हैं और फिर कोई निर्णय लेते हैं, और दूसरे वे जो किसी की कही बात को तुरंत मान लेते हैं और यही नहीं उसके कहे अनुसार आचरण भी करने लगते हैं।

इस श्रेणी के लोग अक्सर जल्दबाजी में  गलत फैसले कर लेते हैं और एक तरह से उस व्यक्ति की बातों में आ जाते हैं जो उनसे अपने मन मुताबिक काम कराना चाहता है, मतलब उसका अपना कोई स्वार्थ है जिसे वह सिद्ध करना चाहता है।

भावनाओं को ठेस पहुंचना

अनेक बार ऐसा होता है कि हम किसी बात को भूल नहीं पाते चाहे कितना भी समय बीत चुका हो और वो सब कुछ फौरन याद आ जाता है जिससे उस वक्त ठेस पहुंची थी जब वह बात कही गई थी।  उसका ध्यान आते ही उसी प्रकार अपने को आहत महसूस करने लगते हैं जैसे तब किया था जब वह बात हुई थी।

इसके विपरीत कुछ लोग जीवन में घटी अनेक घटनाओं या किसी की कभी भी कही कोई भी बात दिमाग में  रखकर भूल जाते हैं । यही नहीं, उस बात को याद करने की जरूरत पड़ने पर भी भुलाए रखना ही बेहतर समझते हैं और यह मानने में ही भलाई समझते है  कि जो बीत गया वो लौटकर तो आ नहीं सकता और आज उसका महत्व भी नहीं है तो फिर पुरानी बातों को कुरेदकर अपना आज क्यों खराब किया जाय।

ऐसी सोच रखने वाले स्वयं तो खुश रहते ही हैं, साथ में दूसरों से कुछ भी अपेक्षा न रखने के कारण उन्हें भी खुश रहने का मौका देते हैं क्योंकि अक्सर पुरानी बातों को याद कर ऐसे निर्णय हो जाते हैं जिनसे अपने आज में तो उथल पुथल हो ही जाती है और जिसने वह बात कही या की थी उसकी मानसिक स्थिति  बिगाड़ने का काम भी कर देते हैं।

कई बार तो आवेश में आकर पुरानी बात का बदला आज लेने लगते हैं जबकि उसकी कोई जरूरत नहीं होती और इस चक्कर में पड़कर कुछ ऐसा भी कर जाते हैं जो अपराध करने जैसा होता है, चाहे वह अपने साथ हो या किसी दूसरे के साथ किया जाए। कई बार यह बदला लेने जैसा काम उसके न रहने पर परिवार के साथ भी कर देते हैं। इसे बैठे बिठाए मुसीबत मोल लेना या आ बैल मुझे मार की कहावत पर चलना भी कह सकते हैं।

भावनाएं भड़काने के ठेकेदार

कुछ लोग, विशेषकर, राजनीति की दुनिया में रहने वाले समाज में अपना सिक्का जमाए रखने के लिए लोगों की भावनाओं को भड़काने, उन्हें पुरानी बातों को याद दिलाने और जिन बातों का आज कोई अर्थ ही नहीं, उन्हें दोहराकर ऐसा वातावरण बनाने में कामयाब हो जाते हैं जो उनके तो फायदे का होता है लेकिन समाज में उसके कारण मन मुटाव से लेकर दुश्मनी तक हो जाती है।

ये लोग इतने शातिर होते हैं कि किसी को सोचने का मौका ही नहीं मिलता और कोई न कोई ऐसा कांड हो जाता है जो न व्यक्ति के हित में होता है और न ही समाज के बल्कि अव्यवस्था फैलने से किसी का स्वार्थ पूरा होने का साधन बन कर उसके हाथ की कठपुतली बनना तय हो जाता है।

ऐसे एक नहीं दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनमें बिना भली भांति सोच विचार किए सामान्य नागरिकों को ऐसे हालात बनाये जाने का हिस्सा बना दिया जाता है, जिनका परिणाम केवल अफरा तफरी और आपसी वैमनस्य में ही निकलता है। इसमें उन तत्वों का भला होता रहता है जो दूसरों का घर जलने पर अपने हाथ सेंकने में माहिर होते हैं।

आम तौर से जिन पुरानी बातों को याद दिलाकर माहौल खराब किया जाता है उनमें राजनीतिक दलों के स्वार्थ तो होते ही हैं, साथ में सामाजिक एकता भी खतरे में पड़ जाती है।

इनमे धर्म, संस्कृति, जाति, परंपरा, रीति रिवाज, पुश्तैनी व्यवहार, पीढ़ियों से चली आ रही मान्यता से लेकर अंध विश्वास तक कुछ भी हो सकता है जिनके आधार पर इन सब चीजों के ठेकेदार जन भावनाओं को भड़काने का खेल तब तक खेलना जारी रखते हैं जब तक ऐसा करने वालों की पूरी तरह से स्वार्थ सिध्दि न हो जाय।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

यह सोच ही अपने आप में कितनी बचकानी लगती है कि हम लिखने, बोलने की आजादी के नाम पर वह सब कुछ सहने को विवश हो जाते हैं जो गलत है, अपमानजनक है और परिवार हो या समाज, बिखराव को जन्म देता है और कभी कभी तो उसके भयावह परिणाम निकलना तय होता है।

संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की आजादी का जितना दुरुपयोग हमारे देश में होता है उसकी मिसाल शायद ही दुनिया में कहीं और मिले। इसके तहत वह सब काम करना भी बहुत आसान हो जाता है जो कदाचित देशद्रोह की श्रेणी में आसानी से रखा जा सकता है।

इसके विपरीत व्यंग्य, मुहावरे और ताना देने के लहजे में कही गई किसी बात को इतना तूल दिया जाने लगता है कि उसका बतंगड़ बनने में देर नहीं लगती।

यह कैसी विडंबना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर हमारा कानून मौन है लेकिन उसके कारण समाज में यदि अव्यवस्था फैलती हैं तो लॉ एंड ऑर्डर का विषय बन जाता है।

आजादी के नाम पर किसी को नीचा दिखाना, जाति सूचक शब्द इस्तेमाल कर बेइज्जती करना,  धार्मिक आस्था का मजाक उड़ाना, पूजा अर्चना के तौर तरीकों पर उंगली उठाना और यहां तक कि अपने आराध्य देवी देवताओं, ईश्वर, पैगम्बर तक को विवाद में खींच लेना जायज हो जाता है।

यही नहीं तनिक भी विरोध करने पर अपने से अलग विचारधारा मानने वालों को धर्म भ्रष्ट होने का तमगा दे दिया जाता है, उन्हें जाति से बाहर कर उनका सामाजिक वहिष्कार तक कर दिया जाता है।  यह सब इसलिए होता है क्योंकि भावनाओं को भड़का कर किसी से कुछ भी करवा लिया जाना सबसे आसान है और फिर ऐसा कोई कानून भी नहीं है जिससे ऐसा करने वालों को दण्डित किया जा सके।

क्या होना चाहिए

सबसे पहले तो एक व्यक्ति के तौर पर अपनी भावनाओं पर काबू रखकर तुरंत कोई कदम उठाने से पहले अच्छी तरह किसी भी बयान, कथन या घटना के बारे में सोच विचार कर लेना चाहिए कि अनजाने में कोई हमारा फायदा तो नहीं उठा रहा और हम जो करने जा रहे हैं उसका आगे चलकर क्या नतीजा निकल सकता है।

जहां तक सरकार का संबंध है, उसे इस बात की पहल करनी ही होगी कि कोई ऐसा कानून बनाया जाय जिससे संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई गलत लाभ न ले सके। इसके लिए अगर हमारे मूलभूल अधिकारों यानी फंडामेंटल राईट्स पर भी नए सिरे से विचार करना पड़े तो भी कोई हर्ज नहीं है क्योंकि संविधान तो सर्वोपरि है ही लेकिन उससे भी ऊपर सामाजिक समरसता है और वह अगर नष्ट होने लगी तो फिर देश के एकजुट रहने में संकट की घड़ी आने से रोकना संभव नहीं है।

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