विश्व संस्था संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा
21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस मनाने
की घोषणा के साथ ही यह तय मान लिया गया था कि यह कोई मामूली डिब्बा नहीं है बल्कि
दुनिया के ऐसे सबसे शक्तिशाली हथियारों में से एक है जो देखने में तो छोटा सा
मासूम की तरह दिखाई देता है लेकिन ऑन करते ही बड़े बड़े महारथियों को हिलाने की
शक्ति रखता है।
लोगों के विचार बदलने, किसी को भी पटखनी देने और घर हो या
बाहर, रोजगार हो या व्यापार, किसी भी क्षेत्र में उथल पुथल मचाने का
काम इसके जरिए कुछ ही मिनटों में हो सकता है।
विश्व टेलीविजन दिवस पर विशेष
हमारे देश में तीन चैथाई से ज्यादा घरों में यह
महाशय विराजमान रहते हैं और अब तो मोबाइल फोन और इंटरनेट की बदौलत चलने फिरने भी
लगे हैं । कहीं भी, कभी भी संसार के किसी भी कोने में होने
वाली कैसी भी घटना का विवरण दिखाकर खुश कर सकते हैं, उदास कर सकते हैं और यदि कोई समाचार या दृश्य दिल को छू जाए तो
विचलित करने से लेकर नींद तक गायब कर सकते हैं।
अठारहवीं शताब्दी में कैमरे से खींची गई तस्वीरों को बिजली की तरंगों के माध्यम से चलती फिरती हालत में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने की खोज शुरू करने वाले वैज्ञानिक को यह अनुमान भी नहीं होगा कि उन्नीसवीं सदी में इसका इतना विस्तार हो जाएगा कि लोग इसके बिना जीवन और उससे जुड़ी बातों को जानने की कल्पना भी नहीं कर पाएंगे।
ताकत का अनुमान सही था
किसी भी देश की ताकत जानने के प्रतीक के रूप
में टेलीविजन का इस्तेमाल यूरोप और अमेरिका में इस कदर बढ़ गया कि एशियाई और
अफ्रीकी देशों के अविकसित देशों पर अपना वर्चस्व दिखाने की होड़ लग गई। रंगीन
टेलीविजन के आविष्कार ने दुनिया भर की ताकतों को एक दूसरे से अपने को बड़ा दिखाने, किसी मामूली मतभेद को जातीय संघर्ष में
बदलने और हिंसात्मक दृश्यों को घरों में पहुंचा कर नफरत का वातावरण तैयार करने में
इसका इस्तेमाल मनचाहे परिणाम देने लगा।
ऐसे में दबे स्वर में इस पर अंकुश लगाने की बात
उठने लगी लेकिन यह संभव नहीं था क्योंकि बोतल में बंद जिन को बाहर निकाल देने के
बाद उसे काबू करना असम्भव था।
भारत में इसकी शुरुआत खबरों के दर्शन कराने से
हुई जो अब तक लोग अखबारों में पढ़कर जान पाते थे। शुरू में इसे आकाशवाणी के ही एक
हिस्से की तरह संचालित करने का निर्णय किया गया और जैसे जैसे इसकी जरूरत अनिवार्य
प्रतीत होती गई और इससे पड़ने वाले प्रभाव का आकलन हुआ तो यह सरकार के लिए जनता पर
सबसे अधिक असर डाल सकने के हथियार के रूप में साबित हुआ।
विकसित देशों में यह बक्सा अपना चमत्कार दिखा
चुका था कि किस प्रकार लोगों की सोच पर पहरा लगाने से लेकर उन्हें अपने फायदे के
लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
हमारे देश में भी इसकी शुरुआत खबरों के जरिए
सरकार द्वारा अपनी छवि का उज्जवल पक्ष दिखाने से हुई और एक ही दल कांग्रेस का
प्रचार प्रसार दिखाई देने से उसके लिए देश पर शासन करने में आसानी होने लगी।
कह सकते हैं कि समाचार दर्शन के साथ शिक्षा, कृषि तथा इसी तरह के तथाकथित
ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों से लोगों की सोच को प्रभावित करने का जो सिलसिला शुरू हुआ
वह आजतक कायम है और दूरदर्शन को सरकार के प्रचार तंत्र का हिस्सा बना कर रखना
फायदे का सौदा बन गया। आज भी जब तब उसे स्वायत्तता देने की बात होती है लेकिन चाहे
किसी भी दल की सरकार हो, इसे वह अपने ही चंगुल में फंसाए रखना
चाहती है।
समाचारों और शैक्षिक तथा उपदेश देने जैसे
कार्यक्रमों की श्रंखला में मनोरंजन के नाम पर शाम को फिल्म दिखाने से लोगों को
घरों में ही रखने में मदद मिली। उद्देश्य यह भी रहा होगा कि लोग बाहर कम निकलेंगे
तो बहुत से भेद छिपाए रखना आसान हो जाएगा।
मनोरंजन के नाम पर
इसी के साथ आस्था, भक्ति, अध्यात्म तथा प्राचीन संस्कृति का परिचय कराने के नाम पर रामायण, महाभारत जैसे धार्मिक और हमलोग, बुनियाद जैसे सामाजिक सीरियल शुरू हुए
तो दूरदर्शन की शक्ति पहचानी जाने लगी जो आज तक कायम है।
अपने मन की बात करनी हो, राजनीतिक संदेश देना हो, आर्थिक मोर्चे पर कोई घोषणा करनी हो या
देश से वास्तविकता छिपाए रखने का काम बड़ी सफाई से करना हो तो दूरदर्शन को इसमें
उसके आकाओं की स्पष्ट दखलंदाजी से महारत हासिल है।
इसी के साथ यह भी सत्य है कि किसी घटना की
विश्वसनीयता की परख करने के लिए दूरदर्शन ही सबसे अधिक भरोसेमंद चैनल है। जबकि
दूसरे चैनल किसी खबर को दिखाने के लिए जबरदस्त नाटकीयता का इस्तेमाल करने में अपनी
ऊर्जा और धन की शक्ति का प्रयोग करते रह जाते हैं, दूरदर्शन आज भी अपनी सादगी से उन्हें दिखाकर जरूरी प्रभाव डालने में
कामयाब हो जाता है।
निजी क्षेत्र में फिल्म और मनोरंजन के
कार्यक्रमों को दिखाने से शुरुआत कर प्राइवेट सेक्टर का प्रवेश हुआ तो दूसरे देशों
की तरह हमारे यहां भी न्यूज चैनल शुरू करने की अनुमति देनी पड़ी। इसका असर यह हुआ
कि जो चीजें सरकार छिपाने में कामयाब हो जाती थी, वे अब खुलकर सामने आने लगीं। यही नहीं उन्हें ज्यादा से ज्यादा नंगा
कर दिखाने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई। अब सरकार हो या विपक्ष किसी के लिए भी बहुत
देर तक जनता से कुछ छिपाना या यूं कहें कि धूल झोंकना संभव नहीं रह गया है।
अगर टेलीविजन दिवस पर इस इडियट बॉक्स पर कुछ गर्व
करने लायक है तो बस इतना ही कि अब सच सात पर्दों में भी नहीं छिपाया जा सकता और अब
यह इतना ताकतवर है कि किसी भी तरह की उठापटक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में कर सकने
में सक्षम है।
मनोरंजन के नाम पर हिंसा, भय, यौन
विकृति तथा वीभत्स दृश्यों को दिखाना या उन्हें देखना अब दर्शक वर्ग के चुनाव पर
निर्भर हो गया है कि वह क्या देखना चाहता है और क्या नहीं। सरकारी हो या निजी चैनल
उनकी अर्थव्यवस्था अब इस बात से चलती है कि किसकी टीआरपी पर कितनी पकड़ है।
दर्शक केवल इतना कर सकते हैं कि वे अपनी बुद्धि
और विवेक के बल पर चैनलों में कार्यक्रम निर्माताओं को अपनी पसंद के हिसाब से
धारावाहिक हों या टीवी फिल्म, निर्माण
करने के लिए विवश करते रहें। यदि ऑडियंस यह चाहती है कि कार्यक्रम ऐसे हों जिन्हें
देखने के लिए उन्हें छिपना न पड़े या परिवार के साथ न देख सकते हों तो इस टेलीविजन
दिवस पर इतना ही संकल्प कर लेना बहुत है।
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