शनिवार, 19 मार्च 2022

काश्मीर पर लगे ज़ख्म के नासूर बनने से पहले इलाज़ जरूरी था

 

कहते हैं कि शरीर पर लगे घाव पर समय रहते मरहम न लगे तो नासूर बन जाता है और मन पर लगी चोट जिंदगी भर सालती रहती है। यही कश्मीर का सच है।

एक सच्चाई यह भी है कि  अनुपम सौंदर्य, अपार प्राकृतिक वैभव से पूर्ण प्रदेश, निवासी ज्ञान, बुद्धि तथा मानवीय संवेदनाओं से भरे पूरे हों तो वहां तीनों लोकों की सभी शक्तियां विद्यमान हों तो आश्चर्य कैसा ? यह हमारा  वर्तमान कश्मीर है।

देर से सही लेकिन सही हुआ

यह कहने या दोहराते रहने का अब कोई मतलब नहीं रह गया कि आज़ादी के बाद भारत में इस प्रदेश का संपूर्ण विलय होने पर भी पाकिस्तान की नज़र लगी होने के कारण हमेशा यह प्रदेश तनाव, परेशानी और युद्ध जैसे माहौल से ग्रस्त रहा। इसका केवल एक ही हल था जो धारा 370 हटाकर और इसे भारत का वास्तविक रूप से अभिन्न अंग बनाकर 2019 में किया गया।

जिन लोगों को सन 1980 से पहले कश्मीर जाने का अवसर मिला होगा तो वह इस बात की गवाही देंगे कि चाहे राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर कैसा भी वातावरण रहा हो लेकिन वहां जाने पर डर नहीं लगता था। उसके बाद जो हुआ वह एक दर्दनाक दास्तां है।

जिस तरह सन 1984 में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से जुड़ी हिंदू सिख को अलग कर देने की साजिश रची गई, उसी प्रकार 1990 में कश्मीर से हिंदुओं का नामोनिशान मिटाने की हरकत को अंजाम दिया गया और इन दोनों के पीछे  भारत के दुश्मनों की मिलीभगत थी कि भारत के टुकड़े हो जाएं जिसके नारे भी लगाए जाने लगे । क्या यह दोनों घटनाएं एक ही कड़ी के दो सिरे नहीं हैं ?

आतंक की परिभाषा

आतंक क्या होता है ? जब घर से बाहर निकलते ही मौत का अंदेशा हो, खुलकर न किसी से बात कर सकते हों, न मिल सकते हों, साथ चल रहे अनजान व्यक्ति पर हमलावर होने का शक हो, भरोसा करना तो दूर, हरेक को संदेह की नज़र से देखने की आदत बन जाए, डर इस सीमा तक हो कि खुलकर जीने, अपनी मर्ज़ी से कहीं भी जाने से पहले सौ बार सोचना पड़े, यह आतंक की परिभाषा है !

कारगिल युद्ध से ठीक पहले कश्मीर में दूरदर्शन के लिए एक सीरियल बनाते समय आतंक महसूस किया था। जिस जगह शूटिंग कर रहे थे, वहां पुलिस की तरफ से हिदायत थी कि कहीं जाना हो तो पहले से सूचित करना होगा और सुरक्षा कर्मी का साथ नहीं छोड़ना होगा, अगर ऐसा किया तो हमारे साथ हुई किसी भी वारदात की जिम्मेदारी हमारी होगी। वजह यह बताई गई कि क्योंकि सुरक्षा के लिए पुलिस हमारे साथ थी तो हम आतंकवादियों के रडार पर आ गए हैं।

एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के घर जाने पर देखा कि जहां एक ओर वे हमसे बात कर रहे थे तो उनकी निगाहें चारों तरफ चैकसी करती हुई लग रहीं थीं। पूछने पर बताया कि सामने की हरियाली से कभी भी गोली आ सकती है क्योंकि पुलिस हमारी हिफाज़त कर रही है और यह उन्हें मंजूर नहीं।

धारा 370 हटने से पहले जब भी कश्मीर जाना हुआ तो पहले की तरह डर बना रहा कि कभी भी कुछ भी हो सकता है। किसी सरकारी अधिकारी के साथ हैं तो निश्चित रूप से आतंकवादियों की नज़र में आ गए हैं।  ऐसा माहौल हो तो कोई कैसे कुदरती नजारों का मज़ा ले सकता है ? बस, जैसे तैसे काम समाप्त कर वापिस लौटने की फिक्र रहती थी।

हालांकि अभी भी पूरी तरह कश्मीर जाने पर भय से मुक्ति नहीं मिल पाई है लेकिन फिर भी उसमें काफी हद तक कमी ज़रूर हो गई है।

वर्तमान दौर में आई फिल्म कश्मीर फाइल्स ज़िहादी जुनून और दुश्मन के मंसूबों पर बनी एक ऐसी फिल्म है जिसमें कट्टरपन की सभी हदें पार होती हुई दिखाई गई हैं।

उल्लेखनीय है कि कश्मीर से आकर देश के विभिन्न भागों में बसे कश्मीरियों ने अपने साथ हुए अन्याय को अपने साथ ढोया नहीं बल्कि अपनी टीस को दिल के एक कोने में दफ़न कर तरक्की के रास्ते पर चल पड़े। उस दौर में आए लोगों से मिलने, बात करने और उनके साथ वक्त बिताने पर कभी यह अनुभव नहीं होता कि उनके अंदर कितना आक्रोश और बेचैनी छिपी हुई है। इस फिल्म ने उनकी तकलीफ़ समझने की एक कोशिश की है।

गलती किसी भी समय हुई हो और किसी ने भी की हो, उसका दंश हमेशा चुभता रहता है, राजनीति करने वाले इस बात को समझ लें तो शायद बहुत सी अमानुषिक घटनाएं न होने पाएं और जिन्होंने यह दुःख झेला है, उन्हें कुछ सांत्वना मिले !

आज कश्मीर अपना नया इतिहास रच रहा है, बदलाव दिख रहा है और संभल कर चल रहा है। पुरानी स्मृतियां मिटती नहीं हैं लेकिन उन्हें बार बार याद करने से कोई लाभ भी नहीं है।


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