शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

स्त्री पुरुष के अतिरिक्त मनुष्य की अन्य ‘ प्रजातियों ’ को सामान्य जीवन का अधिकार

विषय बहुत संवेदनशील और गंभीर है लेकिन समझ में आना और उस पर चर्चा करना आवश्यक है। जन्म के समय डॉक्टर, नर्स, दाई या जिसने भी प्रसव कराया हो, उसके द्वारा नवजात शिशु का लिंग निर्धारण जीवन भर मान्य होता है अर्थात् लड़का, लड़की या थर्ड जेंडर।


जन्मजात अधिकार और स्वभाव

स्त्री पुरुष को जन्म से ही सभी संवैधानिक, क़ानूनी, सामाजिक और पारिवारिक अधिकार मिल जाया करते हैं और अब एक लंबी लड़ाई के बाद थर्ड जेंडर को भी इनका पात्र मान लिया गया है। लेकिन, सीमित ही सही, अच्छी ख़ासी तादाद ऐसे प्राणियों की भी है जो इन तीनों की परिभाषा में नहीं आते। प्रश्न यह है कि क्या इन्हें भी सामान्य जीवन जीने का अधिकार है ? हालाँकि बहुत से देशों जिनमें आधुनिक और स्मृद्ध कहे जाने वाले देश हैं, इन्हें मान्यता दे दी है परंतु भारत में अभी इस पर सोच विचार ही हो रहा है और मामला अदालत से लेकर संसद तक में उछल रहा है मतलब कि लटक रहा है।

जैसे जैसे शिशु की उम्र बढ़ती है, उसका मानसिक और शारीरिक विकास होने लगता है और वह अपने आसपास अर्थात् परिवार और संबंधियों की जो पहचान उसे बताई जाती है, उसके अनुरूप उन्हें समझने लगता है और रिश्तों की गरिमा के अनुसार आचरण करता है। यदि कहीं भूल चूक होती है तो घर परिवार के सदस्य सुधार कर देते हैं और वह अपने परिवेश और ज़िम्मेदारियों को जानने समझने लगता है।

एक ओर चाहे लड़का हो या लड़की, उसका पारिवारिक व्यक्तित्व विकसित होता जाता है और दूसरी ओर इसी के साथ उसकी अपनी पर्सनालिटी भी बनने लगती है। शरीर के साथ भावनाओं का भी मेल होने लगता है। वह कैसा दिखे, क्या पहने, कैसे व्यवहार करे, यहाँ तक कि बोलने चालने, चलने फिरने का उसका एक अपना ही स्टाईल बनने लगता है अर्थात् उसकी अपनी पहचान बनती जाती है। हालाँकि इसमें माता पिता और जान पहचान वालों का भी असर पड़ता है लेकिन वह मामूली होता है, उसके व्यक्तित्व का बड़ा हिस्सा प्राकृतिक रूप से पनपता है जो हो सकता है कि पारिवारिक मान्यताओं और पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं के ख़िलाफ़ हो जिसके कारण उसे अवहेलना, तिरस्कार और यहाँ तक कि मर्यादा तोड़ने, मनमानी या अनोखी बात करने का आरोप भी सहना पड़ता है।हो सकता है उसे परिवार से निकाला या संपत्ति से बेदख़ल किए जाने का भी सामना करना पड़े, एकाकी जीवन व्यतीत करना पड़े और एक सामान्य व्यक्ति की तरह उसे न रहने दिया जाये।

थर्ड जेंडर और उसके रूप

अब हम इस बात पर आते हैं कि यह जो सामान्य मर्द और औरत से अलग उसका तीसरा जेंडर अपने अनेक रूपों में सामने आता है, वह समाज को मंज़ूर है या नहीं। थोड़ा और खुलासा करते हैं। मान लीजिए, बड़ा होने पर उसके विवाह के प्रस्ताव आते हैं। यदि वह सामान्य स्त्री या पुरुष है, तब आम तौर से कोई समस्या नहीं होती चाहे वह परिवार की सहमति से हो या प्रेम विवाह हो। इसके विपरीत यदि उसकी भावनायें सामान्य स्त्री पुरुष जैसी नहीं हैं, तब वह और उसका जीवन एक समस्या बन जाता है जो कभी कभी बहुत बड़ी मुसीबत का कारण हो जाता है।

वास्तविकता यह है कि ज़्यादातर मामलों में किसी व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक विकास के बारे में केवल उसे ही पता होता है और वह उसी के अनुसार बर्ताव करता है। जन्म से पुरुष होते हुए स्त्रियों जैसी भावनायें अधिक प्रबल होना, अपने को महिला की तरह सजाने संवारने और आचरण करने को महत्व देना। यही स्थिति एक स्त्री के संबंध में हो सकती है जो पुरुषों जैसा दिखने और वैसा ही व्यवहार करने में रुचि रखती हो। यह सारा मसला जबकि क़ुदरत से मिले हार्मोन्स यानी जन्मजात शारीरिक गठन का है लेकिन अधिकतर मामलों में इस बात को न समझते हुए समाज ऐसे सभी स्त्री पुरुषों को नफ़रत का पात्र समझकर उनके साथ अत्याचार की हद तक दुर्व्यवहार होता है।

अब एक दूसरी स्थिति है जिसमें जन्म से किसी स्त्री या पुरुष का जवान होने पर अपने ही लिंग के व्यक्ति से आकर्षण हो जाता है। दोनों एक दूसरे को इतना पसंद करने लगते हैं कि सामान्य रूप से विवाहित जीवन बिताना चाहते हैं। यह जो एक दूजे के प्रति लगाव है, समर्पण की भावना है तो यह भी प्राकृतिक है लेकिन बहुत से लोग स्वीकार नहीं कर पाते कि यह मानव जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है।

यह बात वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध हो चुकी है कि किसी भी व्यक्ति की भावनायें समय और काल के अनुसार बदलती रहती हैं। कभी वह केवल पुरुष तो कभी स्त्री बन कर सोचता है तो कभी दोनों रूपों में अपने को देखता है। इसे ट्रांस जेंडर कह सकते हैं। कुछ स्थितियों में तो यह भावना इतनी बलवती हो जाती है कि सर्ज़री द्वारा अपने शरीर की चीरफाड़ से वैसा बनना चाहता है जैसा वह सोचता है कि वह है। इसमें कुछ भी अनोखा नहीं है क्योंकि यह कुदरती है। इसे यूँ समझिए कि जन्म से प्रकृति की तरफ़ से हो गई गलती का सुधार करना और वैसा जीवन जीना जैसा अपना स्वभाव है।

प्रकृति ने जिसे जैसा जीवन दिया, अपना अलग स्वभाव दिया और जो जैसे हैं, वैसे ही जीना चाहते हैं तो इसमें समाज या क़ानून की दख़लंदाज़ी क्यों होनी चाहिए ? यदि कोई समान लिंग के व्यक्ति दंपति बनकर रहना चाहते हैं, संतान की इच्छा गोद लेकर पूरी करना चाहते हैं, पारिवारिक विरासत या सम्पति पर अधिकार चाहते हैं या अपनी दत्तक या प्राकृतिक रूप से जन्मी संतान को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते हैं तो इसमें किसी को क्यों कोई एतराज़ होना चाहिए ?

इतिहास क्या कहता है

भारत के पौराणिक इतिहास में ऐसी घटनाओं की भरमार है जिनमें थर्ड जेंडर को सामान्य रूप से प्राकृतिक वरदान समझा गया न कि जैसा वर्तमान समय में कलंक या दोष समझा जाता है। भगवान विष्णु की गर्भनाल से ब्रह्मा की उत्पत्ति, उनका मोहिनी रूप में असुरों का वध और यही नहीं त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश को उत्पत्ति की कथा क्या यह नहीं बताती कि किसी व्यक्ति के शरीर में स्त्री और पुरुष दोनों के प्रजनन यानी रीप्रोडक्टिव अंग हो सकते हैं। आज भी ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें कुदरत ने दोनों अंग दिये हैं, वे पुरुष की भाँति संभोग भी कर सकते हैं और स्त्री की तरह शिशु को जन्म भी दे सकते हैं।ऋषि अगस्त्य और वशिष्ठ की उत्पत्ति, भगवान अय्यपा का प्रादुर्भाव और मित्र और वरुण के समलैंगिक संबंध और भगवान कार्तिकेय का जन्म क्या है ?

रामायण और महाभारत में ऐसे बहुत से प्रसंग हैं जो किसी प्रकार का लिंग भेद नहीं करते बल्कि पुरुष और महिला के अतिरिक्त जितने भी अन्य लिंग हैं सबका समान रूप से आदर करना सिखाते हैं।राजा पाण्डु और उनकी संतानों को क्या कहेंगे, शिखंडिनी का शिखंडी के रूप में परिवर्तन, अष्टावक्र द्वारा हड्डियों के बिना जन्मे बालक को स्वस्थ कर राजा भागीरथ बनकर गंगावतरण कराने से लेकर न जाने कितने आख्यान हैं जिनमें कहीं लिंगभेद नहीं मिलेगा।

बेहतर होगा कि समाज ऐसे सभी संबंधों को मान्यता दे जो परंपराओं को मानने वालों के लिए लीक से हटकर तो हो सकते हैं लेकिन उनमें ग़लत कुछ भी नहीं है। आज जो अदालतों में ये लोग न्याय की गुहार लगा रहे हैं, अपने अधिकारों की माँग कर रहे हैं और एक सामान्य दम्पत्ति की तरह जीवन जीने देने के लिए प्रयास कर रहे हैं तो इसमें अड़चन डालने के स्थान पर सहयोग करना ही श्रेयस्कर है। स्वीकार लेना चाहिए कि प्रकृति ने किसी को क्या बनाया, यह स्वाभाविक प्रक्रिया है।

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

सरकार और प्रशासन के ढीलेपन से ही उपभोक्ता अधिकारों का हनन होता है

प्रतिवर्ष 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता दिवस मनाये जाने की परंपरा है। सन् 1900 के आसपास सबसे पहले अमेरिका में इस बात की चर्चा शुरू हुई कि अगर कोई व्यक्ति किसी निर्माता या दुकानदार की बेईमानी का शिकार होता है तो उसे क्या करना चाहिए ? समय के साथ इस बारे में जागरूकता बढ़ी और इसने एक आंदोलन का रूप ले लिया। यह लहर यूरोप से होती हुई एशियाई देशों और फिर पूरी दुनिया में फैल गई और आज सभी देशों में उपभोक्ता अधिकारों को लेकर क़ानून बन चुके हैं। अमीर देशों में अब यह पर्यावरण, प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग और जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों को सामान्य उपभोक्ता से जोड़ने तक का विषय बन चुका है। इस बार का थीम है स्वच्छ ऊर्जा के बारे में सामान्य नागरिकों को जागरूक किया जाए।


अपने देश की बात

भारत में उपभोक्ता आंदोलन की शुरुआत साठ के दशक में मानी जा सकती है। उसके बाद अस्सी के दशक में उपभोक्ता संरक्षण क़ानून बना और बड़े ज़ोर शोर से इसका प्रचार प्रसार हुआ। अपने अधिकार, जागो ग्राहक जागो जैसे कार्यक्रमों से सरकार की नीतियों का बखान शुरू हुआ और लगा कि देश से अब उपभोक्ताओं का शोषण समाप्त हो जायेगा। इसके लिए ज़िला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ता अदालतों का गठन हुआ और उम्मीद की गई कि अब ग्राहक की जेब नहीं कटेगी, उसे सही और प्रमाणित वस्तु मिलेगी, उसके साथ मूल्य और गुणवत्ता को लेकर धोखाधड़ी, छल फ़रेब, चालबाज़ी और हेराफेरी नहीं होगी और यदि कोई ऐसा करता है तो उसके ख़िलाफ़ पीड़ित द्वारा उपभोक्ता अदालतों में गुहार लगाई जा सकती है। उम्मीद की गई कि धोखे का शिकार व्यक्ति कदम उठाये तब ही न्याय मिलेगा। मतलब यह कि एक तो वह पीड़ित है, मुक़दमे का बोझ भी उठाये और अनंत काल तक न्याय पाने का इंतज़ार करता रहे।

नियम भी सरल जैसे दिखने वाले बना दिये कि सादे काग़ज़ पर अर्ज़ी दीजिए, ज़रूरी काग़ज़ात लगाइए और न्याय आपके घर दौड़ लगाता हुआ आएगा, न वकील का खर्च, न पेशी दर पेशी हाज़िर होना और न ही न्याय पाने के लिए भारी भरकम खर्च करने से लेकर दौड़भाग करने तक की दरकार, मानो सब कुछ दुरुस्त हो जाएगा, कह सकते हैं कि बस रामराज्य आ गया।

वास्तविकता क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। आज तक ज़िला स्तर पर स्थापित उपभोक्ता अदालतों की दशा पुराने जमाने के किसी सरकारी दफ़्तर जैसी है जिसमें न ढंग का फर्नीचर है, न बैठने का इंतज़ाम, पीने के पानी और शौचालय तक की ठीक व्यवस्था नहीं, साफ़ सफ़ाई तो दूर की बात है।

असल में हुआ यह कि क़ानून के मुताबिक़ इनका गठन ज़रूरी था तो जैसे तैसे इंफ़्रास्ट्रक्चर के नाम पर कुछ लीपापोती कर दी गई, सुनवाई करने और फ़ैसला देने के लिए सदस्यों की नियुक्ति भी हो गई जिसमें यह तक नहीं देखा गया कि जिनकी नियुक्ति हो रही है, उनकी क़ानूनी योग्यता क्या है और क्या उन्हें कोई अनुभव और ज्ञान है या किसी प्रतियोगी परीक्षा के तहत उनकी क़ाबिलियत सिद्ध हुई है अथवा उन्हें किसी की सिफ़ारिश या सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते या किसी राजनीतिज्ञ के कहने पर इस पद पर आसीन कर दिया गया है ?

यही कारण है कि क़ानून द्वारा तय समय में फ़ैसले नहीं होते और सामान्य अदालतों की तरह अब उपभोक्ताओं के लिए विशेष रूप से बनी अदालतों में भी दसियों साल तक फ़ैसलों का इंतज़ार करना पड़ सकता है। इससे इनकी स्थापना का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।

उदाहरण के लिए किसी घरेलू सामान की ख़रीदारी में धोखा हुआ है जैसे कि टीवी, फ्रिज, रसोई के उपकरण, कपड़ों और सौंदर्य प्रसाधन या दूसरी कोई भी वस्तु जो ख़राब निकली है, निर्माता या दुकानदार ने ग़लत दावे से गुमराह किया है और आपने यह सोचकर ख़रीदारी कर ली कि अगर कुछ ग़लत हुआ तो क़ानूनी मदद मिलेगी। यह ग़लत साबित तब हो जाता है जब इसके लिए वर्षों तक फ़ैसले की प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। इसलिए अधिकतर लोग पैसों का नुक़सान सहना या दुकानदार से लड़ झगड़कर कोई हल निकालने में ही अपना भला समझते हैं।

आजकल ऑनलाइन ख़रीदारी में तो धोखा होने के बेशुमार क़िस्से सुनने को मिल रहे हैं जिनका कोई समाधान नहीं, बस मन को समझाना पड़ता है कि नुक़सान सह लेना ही बेहतर है। प्रश्न उठता है कि जब वास्तविकता यही है कि अपना नुक़सान होने पर चुप बैठना पड़े तो फिर क़ानून के संरक्षण का लाभ किसे मिला ?

एक दूसरा उदाहरण है। अक्सर सभी ने देखा होगा कि पटरियों, पैदल चलने वाली जगहों और सड़क तक पर ख़ुदरा सामान बेचने वाले क़ब्ज़ा कर लेते हैं जिससे आने जाने में परेशानी होती है और अक्सर एक्सीडेंट हो जाते हैं, लोगों की जान तक चली जाती है। एक उपभोक्ता के रूप में प्रत्येक नागरिक का अधिकार है कि उसे साफ़ सुथरी सड़क, सुरक्षित पटरी और चौराहे पार करने की सुविधा मिलनी चाहिए लेकिन इन सब पर तो अनधिकार क़ब्ज़ा है तो क्या इसके लिये स्थानीय प्रशासन की ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह इस तरह क़ब्ज़ाई जगह ख़ाली कराए। हमारे देश में यह संभव नहीं, स्वयं प्रशासन इस तरफ़ से आँखें मूँद लेता है क्योंकि उसकी मिलीभगत के बिना कोई अतिक्रमण हो ही नहीं सकता।

अब यह देखिए कि मिलावट, नाप तोल में गड़बड़ी और निर्माता या विक्रेता की ग़लतबयानी से उपभोक्ता को नुक़सान होता है तो सरकार और प्रशासन की तरफ़ से कोई भी कार्यवाही तब होती है जब कोई शिकायत करता है जबकि व्यवस्था यह होनी चाहिए कि ग्राहक तक कोई भी वस्तु तब ही पहुँचे जब वह सभी मानकों पर खरी उतरती हो।

आजकल एक और धोखाधड़ी की जा रही है। किसी भी सामान पर लिखा मिल जाएगा कि इसकी मात्रा पहले से पच्चीस या इतने प्रतिशत अधिक है। इससे भ्रम होता है कि पहले के दाम पर ही ज़्यादा मात्रा मिल रही है। तो क्या पहले कम  मात्रा के अधिक दाम लिए जा रहे थे ? इसी के साथ गिफ्ट के रूप में कुछ देने की भी पेशकश होती है तो क्या इस बात का कोई सबूत है कि गिफ्ट की क़ीमत वस्तु के मूल्य में शामिल नहीं है ? यह सब भ्रामक तरीक़े से बिक्री करने के दायरे में आता है लेकिन हो रहा है और सरकार तथा प्रशासन कोई कार्यवाही नहीं कर रहा।

सरकार और प्रशासन का दायित्व केवल क़ानून बना देने तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसका पालन करने और करवाये जाने तक है। कह सकते हैं कि इसके लिए इंस्पेक्टर हैं, एक पूरी फ़ौज है जो हर कदम पर निगरानी करती है और दोषी पाए जाने पर दण्ड की भी व्यवस्था है। जब ऐसा है तो उपभोक्ता द्वारा शिकायत किए जाने का इंतज़ार क्यों किया जाता है ? और इसके अतिरिक्त यह कि बाज़ार में मिलावटी, कम वजन और ख़राब क्वालिटी का सामान क्यों और कहाँ से आता है, इसकी जानकारी रखना और रोकथाम करना सरकार और प्रशासन का काम है तो क्या ऐसा होने पर जिम्मेदार अधिकारियों, विभागों से लेकर मंत्रालयों तक पर उपभोक्ता अधिकारों के हनन के लिये कार्यवाही नहीं होनी चाहिए ?

सरकार ने सेंट्रल कंज़्यूमर प्रोटेक्शन अथॉरिटी का गठन भी किया जिसे बहुत से अधिकार प्राप्त हैं। प्रश्न यह है कि इसका स्वरूप एक सरकारी मंत्रालय की तरह क्यों है, क्या इसका काम यही नहीं है कि उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए यह स्वयं कदम उठाये न कि तब जब कोई उपभोक्ता इसका दरवाज़ा खटखटाए।

विश्व उपभोक्ता दिवस पर प्राधिकरण इतना ही बता दे कि उसके गठन के बाद से लेकर अब तक कितने संबंधित अधिकारियों, विभागों और संस्थाओं पर कार्यवाही हुई है तो इसका उत्तर शून्य में ही मिलेगा।

उपभोक्ता आंदोलन की स्थिति हमारे देश में नगण्य है क्योंकि जो काम प्रशासन का है उसे करने की अपेक्षा सामान्य उपभोक्ता से की जाती है। यह सुनिश्चित करना सरकार और प्रशासन का काम है कि बिक्री के लिए कोई भी वस्तु या सेवा उपभोक्ता तक तब ही पहुँचे जब वह सभी मापदंड पूरे करती हो। इसके अतिरिक उसके अधिकारों के संरक्षण के लिए समय सीमा का पालन कड़ाई से हो और इसकी अनदेखी करने वाले पर सख़्त कार्यवाही हो। इतना हो जाए तो बहुत है, शेष काम तो उपभोक्ता स्वयं कर ही लेगा।

शनिवार, 8 अप्रैल 2023

न्याय सस्ता हो या महँगा, देर से मिला केवल सजावटी होता है

 देश की एक विख्यात संस्था टाटा ट्रस्ट पिछले कुछ वर्षों से भारत की न्याय व्यवस्था को लेकर एक रिपोर्ट जारी करती है जिसे तैयार करने में अनेक जानी मानी संस्थाएँ और न्यायिक विषयों के जानकार शामिल रहते हैं। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के रूप में यह दस्तावेज़ सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है। 2022 की रिपोर्ट हाल ही में आई है। इसमें कुछ ऐसे तथ्य और वास्तविकताएँ हैं जिन पर सामान्य व्यक्ति का ध्यान जाना ज़रूरी है क्योंकि इनका स्वरूप केवल ऐकडेमिक न होकर जन साधारण के चिंतन मनन के लिए भी है।


न्याय की प्रक्रिया

न्याय के चार अंग कहे गए हैं ; पुलिस, अदालत, जेल और क़ानूनी सहायता। इन पर ही पूरी न्याय व्यवस्था टिकी हुई है इसलिए इन्हें स्तंभ कहा गया है। इसका मतलब यह हुआ कि इनकी मज़बूती या कमज़ोरी पर ही इंसाफ़ का पूरा दारोमदार है। रिपोर्ट के अनुसार देश के जिन राज्यों में क़ानून का राज पूरी शिद्दत से चल रहा है, उनमें कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना, गुजरात और आंध्र प्रदेश पहले पाँच बड़े राज्य हैं। उत्तर प्रदेश का हाल यह है कि सबसे नीचे अठारहवें स्थान पर है। एक करोड़ से कम आबादी वाले राज्यों में सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा पहले तीन और गोवा सातवें स्थान पर है।

यह तो बात हुई आँकड़ों की लेकिन सच्चाई यह है कि यदि समय पर न्याय न मिले तो वह कमरे में टंगे दिखावटी मेडल से ज़्यादा कुछ नहीं क्योंकि देर से मिलने पर उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति ने अपनी नौकरी में हुए अन्याय के ख़िलाफ़ तीस साल की उम्र में न्याय से गुहार लगाई और निर्णय आया तब जब वह 58 वर्ष का हो गया और उसके लिए तब मिल जाने वाली नौकरी का आज मिलने का कोई मतलब नहीं रहा।

हमारी जेलों में यदि एक व्यक्ति सज़ा पाया हुआ है तो उसके साथ दो अंडर ट्रायल हैं जो एक दो नहीं दसियों साल से अपने ऊपर लगे आरोपों की सुनवाई शुरू होने का इंतज़ार करते हुए जेल को ही अपना घर मान चुके हैं। तीन चौथाई से ज़्यादा क़ैदी इसी गिनती में आते हैं। क़ैद में रखने का खर्च बीस से पैंतीस हज़ार सालाना है और साढ़े पाँच लाख क़ैदी हैं तो सवा चार लाख अंडर ट्रायल हैं। अनुमान लगा लीजिए कितना धन व्यर्थ बर्बाद हो रहा है।

सुधार, पुनर्वास और प्रशिक्षण

हमारी न्याय व्यवस्था में क़ैदियों को सुधारने और उन्हें जेल से छूटने पर कोई काम करने लायक़ बनाने की बात कही गई है। उल्लेखनीय है कि आधी से अधिक जेलों में ऐसे लोगों की नियुक्ति ही नहीं है जो क़ैदियों को प्रशिक्षण दे सकें।

एक और मज़ेदार बात यह है कि पुलिस में भर्ती हुए सिपाहियों से लेकर वरिष्ठ पदों पर काम करने वाले अधिकारियों में नब्बे प्रतिशत बिना किसी ट्रेनिंग के अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। एक चौथाई थानों में न तो सीसीटीवी है और न ही महिला डेस्क, फ़र्नीचर की बात न ही की जाए तो बेहतर है, ज़रूरी सुविधाएँ जैसे टॉयलेट और पीने के पानी तक का पर्याप्त प्रबंध थानों में नहीं दिखाई देगा। फ़िल्मों में थानों की बदहाली के दृश्य असलियत में और भी ज़्यादा भयावह हैं। गाँव देहात में तो थानों की सफ़ाई ही तब होती है जब किसी अधिकारी की नियुक्ति या तबादला होता है।

जहां तक अदालतों का संबंध है, न तो आवश्यक संख्या में न्यायालय हैं और न ही न्यायाधीश। जब स्वीकृत पदों में आधे के आसपास ही भरे हुए हों तो फिर केस लोड बढ़ना निश्चित है। मूल कारण यही है न्याय में देरी होने का और मुक़दमों का निपटारा पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहने का। उत्तर प्रदेश में एक केस को औसतन बारह साल फ़ैसला होने में लग जाते हैं। दूसरे प्रदेशों में यह अवधि भी कोई तसल्ली देने वाली नहीं है, सभी जगह एक से पाँच छःसाल लगना मामूली बात है।

ऐसा भी नहीं है कि सरकार इन सब चीज़ों के लिए पैसा नहीं देती। हालाँकि यह राशि अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से कम है, लेकिन इसे क्या कहेंगे कि लगभग आधी रक़म का इस्तेमाल ही नहीं होता ? यही कारण है कि जेलों में कुपोषण और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में क़ैदियों की हालत अमानवीय होने की हद तक है, धर्म, जाति और लिंग के आधार पर होने वाला भेदभाव दूसरा बड़ा कारण हैं इनकी दुर्दशा का। इंफ्रास्ट्रक्चर सुविधाओं के पर्याप्त न होने से बहुत सी जेलों में स्वीकृत तादाद से दुगने क़ैदी बंद हैं।

हालाँकि आधुनिक संसाधनों और टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से क़ैदियों की पेशी से लेकर ज़िरह और सुनवाई के बाद फ़ैसला सुनाने तक में काफ़ी कुछ बदला है जैसे कि वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग, इलेक्ट्रॉनिक समन और ऐप्स का इस्तेमाल, फिर भी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है। इसमें अदालतों की संख्या बढ़ाना और उनका आधुनिकीकरण बहुत ज़रूरी है। इसके साथ ही न्यायाधीशों के बैठने और उनके लिए अलग चैम्बर बनाये जाने ज़रूरी हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ यदि देश भर में न्यायालयों में सभी नियुक्तियाँ हो जायें तो एक चौथाई लोगों को बैठने तक की जगह नहीं मिलेगी। इनमें कर्मचारियों से लेकर न्यायाधीश तक हैं। इन्हें या तो घर से काम करना होगा या शिफ्ट लगानी होगी कि एक जाए तो दूसरा बैठ कर काम करे।

पुलिस की हालत यह है कि एक चौथाई पद ख़ाली हैं और औसतन एक व्यक्ति से 15 घंटे काम करने की उम्मीद की जाती है।कई मामलों में तो यह चौबीस घंटे भी हो सकते हैं। ऐसे में कैसे सोचा जा सकता है कि व्यक्ति में चिड़चिड़ाहट नहीं होगी, अपने काम के प्रति लापरवाही नहीं होगी और उसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ख़राब नहीं होगा। महिला पुलिस की हालत तो और भी दयनीय है क्योंकि उन्हें नौकरी के साथ घर भी सम्भालना होता है।

इसके साथ ही क़ैदियों की देखभाल और उन्हें प्रशिक्षण देने के लिए स्टाफ की बेहद कमी है। इनकी नियुक्ति को ज़रूरी भी नहीं समझा जाता जबकि सज़ा पूरी होने के बाद अपराध न करने की मानसिकता और प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना ज़रूरी है और यह जेल का जीवन ही है जो इसमें मदद कर सकता है।

क्या होना चाहिए

वर्तमान स्थिति से उबरने का एक रास्ता ग्राम स्तर पर न्यायालयों की स्थापना का है। हालाँकि इस संबंध में क़ानून भी है लेकिन अभी तक कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है। अगर इन्हें बना दिया जाये और साथ में क़ानूनी मदद भी निःशुल्क मिलने का इंतज़ाम हो तो मुक़दमों को संख्या में तेज़ी से कमी आयेगी और आपराधिक प्रवृत्ति को कम करने में सहायता मिलेगी। इसमें ऐसे क़ानून के ज्ञाता लोगों की एक टीम प्रत्येक अदालत में नियुक्त करनी होगी जो सही समय पर उचित सलाह दे सकने में सक्षम हो। इस टीम में महिलाओं की नियुक्ति अधिक से अधिक हो क्योंकि उनके समझाने का असर पुरुषों से अधिक होता है।

दूसरा उपाय लोक अदालतों को और अधिक मज़बूत करने का है। इनमें कोर्ट के बाहर आपसी सहमति से विवाद सुलझाए जाने पर ज़ोर देकर दोनों पक्षों को राज़ी करना प्रमुख है। अगर मुक़दमा करने से पहले सही सलाह मिलने का इंतज़ाम हो तो काफ़ी बड़ी संख्या में लोग अदालती कार्यवाही के पचड़े में नहीं पड़ना चाहेंगे।

जो विचाराधीन यानी अंडर ट्रायल हैं उन्हें मुक्त करने या उन पर मुक़दमा चलाने की व्यवस्था प्रत्येक जेल में हो और इन्हें अपनी सफ़ाई देने की साधारण प्रक्रिया अपनाने से बहुत लोग जेल के बाहर आ सकते हैं। इन्हें जेल में रखने की समय सीमा तय हो और छूटने पर इनकी निगरानी का इंतज़ाम होने से यह समस्या हल हो सकती है।

सरकार के पास यह रिपोर्ट है, यदि इन पर अमल के लिये राज्य स्तर पर एक समिति बना दी जाये जो समयबद्ध होकर काम करे तो न्याय के क्षेत्र में बहुत कुछ बदल सकता है।

शनिवार, 1 अप्रैल 2023

धूल मिट्टी फाँकना, गंदला पानी, जहरीली हवा, कानफोड़ू शोर और रेतीला-अधपका भोजन, क्या यही औद्योगिक विकास है?

आजादी के अमृत काल में भी ऐसा लगता है कि देशवासी ऐसे युग में जी रहे हैं जहां रेत, राख, आँधी, धूल के बवंडर जहां भी जाओ, उठते ही रहते हैं। आसपास नदी हो तो उसमें नहाना तो दूर उसका पानी पीने से भी डर लगता है। खुली हवा में सांस लेने का मन करे तो धुएँ से दम घुटता सा महसूस होता है और आराम से कुछ खाने की इच्छा हो तो मुँह में अन्न के साथ रेतीला स्वाद आए बिना नहीं रहता।


औद्योगिक विनाशलीला

यह स्थिति किसी एक प्रदेश की नहीं बल्कि पूरे भारत की है जहां उद्योग स्थापित हैं और जिनकी संख्या दिन दूनी रात चैगुनी गति से बढ़ रही है। अब क्योंकि हम औद्योगिक उत्पादन में विश्व का सिरमौर बनना चाहते हैं तो इसके लिए किसी भी चीज की बलि दी जा सकती है, चाहे सेहत या सुरक्षा हो, खानपान या रहन सहन हो !

मजे की बात यह है कि इन सब के लिए भारी भरकम नियम, कानून-कायदे हैं जिन्हें पढ़ने, देखने और समझने की जरूरत तब पड़ती है जब कोई हादसा हो जाता है और धन संपत्ति नष्ट होती है तथा बड़ी संख्या में लोगों की जान चली जाती है। उसके बाद लंबी अदालती कार्यवाही और मुआवजे का दौर चलता है। कुछ बदलता नहीं बल्कि इंसानियत को ठेंगा दिखाते हुए औद्योगिक विकास के नाम पर शोषण, अत्याचार और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन चलता रहता है।


एक अनुभव

वैसे तो लेखन और फिल्म निर्माण के अपने व्यवसाय के कारण अक्सर दूर दराज से लेकर गाँव देहात, नगरों और महानगरों और बहुत प्रचारित स्मार्ट शहरों में आना जाना होता रहता है लेकिन इस बार जो अनुभव हुआ उसे पाठकों के साथ बाँटने से यह उम्मीद है कि शायद सरकार और प्रशासन की नींद खुल सके।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा से जुड़ा एक क्षेत्र है जिसमें सिंगरौली, रॉबर्ट्सगंज, शक्ति नगर और समीपवर्ती इलाके आते हैं। यहाँ पहुँचने के लिए वाराणसी से सड़क मार्ग से जाना था। हालाँकि इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में सड़कों की हालत में बहुत सुधार हुआ है, पक्की सड़कें बनी हैं, हाईवे पहले से ज्यादा सुविधाजनक है, लेकिन कुछ स्थानों पर जबरदस्त जाम और अनियंत्रित ट्रैफिक से भी जूझना पड़ता है।

यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से मालामाल है और यहाँ खनिज संपदा की बहुतायत है। जंगल का क्षेत्र भी है जहां कभी लूटपाट से लेकर हत्या तक होने का डर लगा रहता था। सुनसान इलाकों से सही सलामत गुजरना कठिन हुआ करता था लेकिन अब हालत में काफी सुधार है। इस पूरे क्षेत्र में औद्योगिक गतिविधियों के कारण बहुत कुछ बदला है, नई बस्तियाँ बसी हैं, टाउनशिप का निर्माण हुआ है और जरूरी सुविधाओं का विकास हुआ है।

उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में सरकारी और निजी औद्योगिक संस्थान लगाना फायदे का सौदा रहा है और इसी के साथ गैर कानूनी माइनिंग और तस्करी उद्योग भी बहुत तेजी से पनपा है। माफिया गिरोह चाहे वन प्रदेश हो या मैदानी, सभी जगह सक्रिय हैं। इनके साथ सरकारी कारिंदों और यहाँ तक कि पुलिस की मिलीभगत के किस्से आम हैं।

उदाहरण के लिए स्टोन क्रशर अनधिकृत रूप से कब्जाई जमीन पर धड़ल्ले से चल रहे हैं। पत्थरों की कटाई और पिसाई से निकला रेत इनकी कमाई का बहुत वड़ा साधन है।

अब इसका दूसरा पक्ष देखिए।आप सड़क से जा रहे हैं, अचानक ऊपर कुछ धुँध और बादलों के घिरने का सा एहसास होता है और गाड़ी के शीशे खोलकर या बाहर निकलकर ताजी हवा में सांस लेनी चाही तो ऐसा लगा कि दम घुट जाएगा। क्रशरों से निकलता शोर कान के पर्दे फाड़ सकने की ताकत रखता है। नाक की गंध और मुँह का स्वाद धूल मिट्टी और रेत फाँकने जैसा हो जाता है। रेत की तेज बौछार का भी सामना करना पड़ सकता है और पहने कपड़े झाड़ने पड़ सकते हैं।

अनुमान लगाइए कि ऐसे में जो मजदूर और दूसरे लोग यहाँ काम करने आते हैं, उनका क्या हाल होता होगा? पूछने पर पता चला कि यह इलाका घोर गरीबी के चंगुल में है और गाँव के गाँव वीरान होते जा रहे हैं। बंधुआँ मजदूरी की प्रथा देखनी हो तो यहाँ मिल सकती है। यही नहीं लोगों की जीने की इच्छा नहीं रही क्योंकि तरह तरह की बीमारियों से ये लोग घिरे रहते हैं।

कमाल की बात यह है कि जो मालिक है वह दनादन अमीर होता जाता है क्योंकि कानूनन हो या अवैध, खनन में मुनाफा बहुत है।

चलिए आगे बढ़ते हैं। सड़क के दोनों ओर दूर से देखने पर पहाड़ियों का भ्रम होता है। जानकारी मिलती है कि ये रेत और मिट्टी के विशाल टीले हैं जो समय गुजरने के साथ प्रतिदिन ऊँचे होते जाते हैं। जब हवा चलती है तो यह उड़ कर आसपास की बस्तियों के घरों में घुस जाते हैं और मुँह तथा चेहरे का रंग बिगाड़ने के साथ खाने का स्वाद भी कसैला और किरकिरा कर देते हैं।

यहाँ कोयले से बिजली पैदा करने वाले थर्मल पॉवर प्लांट हैं। घरों को रौशनी से नहलाने के साथ साथ इनसे निकलने वाला धुआँ और राख लोगों की जिंदगी कम करने में एक विशाल दैत्य की भूमिका निभा रहा है। डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, लगातार रहने वाली खांसी और बुखार यहाँ के निवासियों की दिनचर्या का अंग बन चुके हैं।

जरा अंदाजा लगाइये कि जिस जबरदस्त शोर में आपको क्षण भर खड़े होने के लिए कानों में ईयर बड्स लगाने पड़ सकते हैं, उसमें यहाँ काम करने वालों को सुरक्षा साधनों के इस्तेमाल किए बिना या बहुत कम पालन करते हुए देखना आम बात है। आप कितना भी एयर कंडीशंड माहौल में रहिए, सामान्य कार्यों के लिए खुली जगह में आना ही पड़ता है। तब यहाँ काम करने और रहने वालों के लिए जीवन किसी अभिशाप से कम नहीं लगता।

नौजरीपेशा अपना ट्रांसफर करा सकते हैं लेकिन स्थानीय आबादी कहाँ जाए, उसे तो यहीं रहना और जीना मरना है। स्वास्थ्य सुविधाएँ इतनी नाकाफी हैं कि स्त्रियों को प्रसव के लिए दो तीन सौ किलोमीटर दूर वाराणसी और अन्य शहरों में रेफर कर दिया जाता है। यदि सरकारी और निजी संस्थानों द्वारा अपने कर्मचारियों के लिए बनाई गई टाउनशिप में अस्पताल और डिस्पेंसरी तथा दवाईयों की सुविधा पूरे क्षेत्रवासियों के लिए न हो तो लोग कैसे जिंदा रहेंगे, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है।


क्या किया जा सकता है ?

औद्योगिक विकास की गति को कम करना देश की अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह हो सकता है लेकिन कुछ ऐसे उपाय तो किए ही जा सकते हैं जिनसे जीवन पर विनाशकारी प्रभाव कम से कम पड़े। इन उपायों में सबसे पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूलन के अंतर्गत बने नियमों और आदेशों का कड़ाई से पालन अनिवार्य है। वैसे यह भी एक वास्तविकता है कि इस ट्रिब्यूनल की अनदेखी अधिकतर सरकारी उपक्रमों द्वारा ही की जाती है। जो प्राइवेट उद्योग् हैं, उनके लिए तो यह बेकार का बखेड़ा है और उनके पास किसी भी नियम को अपने पक्ष में करने की असीम ताकत है, चाहे वह धन की हो या बाहुबल की।

उदाहरण के लिए जब यह तय है कि हैजार्डस यानी स्वास्थ्य और सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक उद्योग घनी आबादी के इलाकों में लग ही नहीं सकते तो फिर रिहायशी इलाकों में क्यों इनकी भरमार है ? इसके साथ ही जब नियम है कि सेफ्टी प्रावधानों के तहत किसी भी कर्मचारी, कामगारों और लोकल सप्लायरों का जरूरी सुरक्षा साधनों से लैस होकर आये बिना काम पर नहीं आया जा सकता तो फिर कदम कदम पर इनकी अनदेखी क्यों देखने को मिलती है ?

इससे भी ज्यादा जरूरी बात कि जब हमारे वैज्ञानिक संस्थानों ने आधुनिक टेक्नोलॉजी विकसित कर ली है तो उनका इस्तेमाल इन संस्थानों द्वारा क्यों नहीं किया जाता ताकि जल और वायु प्रदूषण के खतरों को कम किया जा सके ?

यह विवरण तो एक बानगी है और देश के अन्य प्रदेशों में औद्योगिक विकास के विनाशकारी पक्ष को समझने के लिए काफी है। एक बात और कि इन इलाकों से अपना काम कर लौटने के बाद कई दिन तक बीमार रहना पड़ सकता है। खांसी और बलगम तथा बुखार और दस्त की शिकायत कई दिन तक रह सकती है। क्या इन सभी औद्योगिक क्षेत्रों में रहने वाले करोड़ों लोगों के जीवन से खिलवाड़ किए जाने पर कोई रोक लग सकती है? जरा सोचिए!


शुक्रवार, 24 मार्च 2023

अजन्मे बच्चे के अधिकार , क़ानूनी मान्यता और भारतीय संस्कार

शिशु के गर्भ में रहने अर्थात् उसके जन्म लेने तक उसके अधिकार हैं, यह हमारे देशवासियों के लिए कुछ अटपटा हो सकता है लेकिन असामान्य या बेतुका क़तई नहीं है। बहुत से देशों में इसके लिए क़ानून भी हैं। इसके साथ ही उन्हें तरोताज़ा बनाए रखने के लिए प्रतिवर्ष 25 मार्च को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गर्भ में पल रहे शिशु के लिए विशेष दिवस मनाए जाने की परंपरा है।


देखा जाए तो यह केवल अजन्मे बच्चे के अधिकारों की बात नहीं है बल्कि उस माँ के अधिकारों का रक्षण है जो उसे नौ महीने तक अपने गर्भ में रखकर उसका पालन पोषण करती है।

अजन्मे शिशु के अधिकार

गर्भस्थ शिशु जैसे जैसे अपना आकार प्राप्त करता जाता है, वैसे वैसे उसकी ज़रूरतें भी बढ़ती जाती हैं। उसके लिए ज़रूरी है कि उसकी माता बनने के लिए महिला को अपना खानपान और रहन सहन बदलना है। इसकी ज़िम्मेदारी पिता बनने जा रहे पुरुष पर भी आती है कि वह वे सब साधन जुटाए और सभी प्रकार की एहतियात बरते जिससे कि अजन्मे शिशु को कोई कष्ट न हो।

इस प्रक्रिया में सही समय पर डॉक्टरी जाँच और टीकाकरण तथा दवाइयों का सेवन आता है। यह बात केवल महिला ही जानती है कि उसके गर्भ में जो जीव पल रहा है, उसकी ज़रूरतें क्या हैं और उन्हें पूरा कैसे करना है ?

अब हम इस बात पर आते हैं कि हमारे देश में क़ानून तो बहुत हैं लेकिन उनसे अधिक पारिवारिक संस्कारों, सामाजिक परंपराओं और न जाने कब से चली आ रही कुरीतियों को मान्यता देने का रिवाज अधिक है। इस प्रक्रिया में क़ानून या तो कहीं मुँह छिपाकर बैठ जाता है और अपनी पीठ के पीछे हो रही घटनाओं को अनदेखा करने को ही अपनी ज़िम्मेदारी निभाना समझ लेता है या फिर अपना डर दिखाकर धौंस जमाते हुए दंड देने लगता है। क़ानून की नज़र में जो अपराधी है, चाहे परिवार और समाज के नज़रिए से सही माना जाए, सज़ा तो पाता ही है।

इस बात की गंभीरता को समझने के लिए कुछ उदाहरण देने आवश्यक हैं। हम चाहे अपने को कितना ही पढ़ा लिखा और आधुनिक कहें लेकिन जब यह बात आती है कि कन्या की जगह पुत्र ही होना चाहिए तो यह हमारे लिए बहुत सामान्य सी इच्छा है। अजन्मे बच्चे के अधिकारों का शोषण यहीं से शुरू हो जाता है। यह पता चलते ही कि गर्भ में कन्या है तो गाँव देहात का परिवार हो या शहर क़स्बे का, मन में उदासी छा जाती है। इस स्थिति में गर्भावस्था में सही देखभाल करने के स्थान पर भ्रूण हत्या करवाने के बारे में सोचा जाने लगता है। अब यह क़ानून सम्मत तो है नहीं इसलिए चोरी छिपे गर्भपात कराने का इंतज़ाम कर लिया जाता है।

अजन्मे बच्चे का पारिवारिक संपत्ति में जन्मसिद्ध क़ानूनी अधिकार है इसलिए भी भ्रूण हत्या होती है और यह परिवार की परंपरा है कि केवल लड़कों को ही उत्तराधिकारी माना जाएगा, इसलिए अगर गर्भ में कन्या है तो उसे जन्म ही क्यों लेने दिया जाए, यह मानसिकता हमारे संस्कार हमें देते हैं।

जहां अल्ट्रासाउंड जैसी तकनीक से यह जाना जा सकता है कि गर्भस्थ जीव में कोई विकृति तो नहीं और यदि है तो गर्भपात का सहारा लेना ठीक भी है और क़ानून के मुताबिक़ भी तो फिर इसकी बजाए इस बात को क्यों प्राथमिकता दी जाती है कि कन्या अगर गर्भ में है तो उसे इस प्रावधान का सहारा लेते हुए उसे जन्म न लेने दिया जाए।

अजन्मे शिशु का एक अधिकार यह भी है कि उसका सही ढंग से विकास होने के लिए गर्भावस्था के दौरान और प्रसव से पूर्व तक वे सब उपचार और सुविधाएँ मिलें जो उसे इस संसार में स्वस्थ रूप में आने का रास्ता प्रशस्त कर सकें। इस कड़ी में माता का निरंतर मेडिकल चेकअप, निर्धारित समय पर टीकाकरण और पौष्टिक भोजन और जन्म लेने से पहले एक सुरक्षित वातावरण जिससे न केवल माँ उसे जन्म देने के लिए तैयार हो बल्कि शिशु भी हृष्ट पुष्ट अवस्था में जन्म ले।

जो साधन संपन्न हैं उनके लिए ये सब करने में कोई समस्या नहीं है लेकिन गाँव देहात, दूरदराज़ के क्षेत्रों, विभिन्न कामों में लगी मज़दूर औरतों से लेकर कामकाजी और घरेलू महिलाओं तथा ग़रीबी में रह रही स्त्रियों के लिए यह सब प्रबंध कौन करेगा ? ज़ाहिर है कि यह सरकार और उसके द्वारा इस काम के लिए बनाई गई संस्थाओं की यह ज़िम्मेदारी है लेकिन यह बात किससे छिपी है कि आज भी अधिकतर ग्रामीण इलाक़ों में डिस्पेंसरी है तो दवा नहीं, अस्पताल है तो डॉक्टर नहीं और अगर ये दोनों हैं तो ईलाज और जाँच पड़ताल तथा ऑपरेशन आदि की सुविधाएँ नहीं। स्वास्थ्य केंद्रों की हालत दयनीय है और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में मरीज़ को दम तोड़ते देखना मामूली बात है। आज भी प्रसव के समय मृत्यु दर डर पैदा करती है।

इसी के साथ जुड़ा है कि यदि किसी की हैसियत नहीं है कि वह आने वाले बच्चे का ठीक प्रकार से पालन पोषण नहीं कर सकता तो उसे अपनी पत्नी को गर्भवती करने का अधिकार नहीं है।इसके साथ ही यदि पत्नी नहीं चाहती कि वह गर्भधारण करे तो पति को समझना होगा कि वह इसके लिए ज़बरदस्ती नहीं कर सकता। अनचाहा गर्भ अजन्मे शिशु के अधिकारों का भी हनन है।

जनसंख्या नियंत्रण

यह परिस्थिति एक और वास्तविकता को भी उजागर करती है और वह यह कि अजन्मे बच्चे के अधिकारों की सुरक्षा के लिए आबादी का बिना किसी हिसाब किताब के बढ़ते जाना घातक है। इसके लिए जनसंख्या नियंत्रण क़ानून की ज़रूरत है और उस पर स्वेच्छा अर्थात् अपनी मर्ज़ी और सहमति से अमल करना आवश्यक है।

हमारे आर्थिक संसाधन तब ही तक उपयोगी हैं जब तक उन पर बढ़ती आबादी का ज़रूरत से ज़्यादा दबाव नहीं पड़ता। ग़रीब के यहाँ ही अधिक संतान जन्म लेती है और पालन पोषण की सुविधाएँ न होने से उसके कुपोषित, अशिक्षित और समाज के लिए अनुपयोगी बने रहने का ख़तरा सबसे ज़्यादा इसी तबके में होता है। यह भी अजन्मे बच्चे के अधिकारों का हनन है क्योंकि जब संतान के पालन पोषण की व्यवस्था नहीं तो माता पिता बनने का भी अधिकार नहीं।

जब हम अपने गली मोहल्लों, चौराहों और सड़कों पर भीड़ देखते हैं तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इसमें अधिकतर लोगों के पास कोई कामधंधा, नौकरी या रोज़गार नहीं है और ये सब उसी की तलाश में भटक रहे हैं या कहें कि दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। ये लोग ऐसा नहीं है कि पढ़े लिखे नहीं हैं या मेहनत नहीं करना चाहते। परंतु जब स्थिति एक अनार और सौ बीमार वाली हो तो फिर उसे क्या कहा जाएगा ?

यह विषय गंभीर है और इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि संतान को लेकर एक ऐसे नज़रिए से सोचा जाए जिसमें सांस्कृतिक और पारंपरिक मान्यताओं को तो स्थान मिले लेकिन कुरीतिओं का पालन न हो, लिंगभेद के कारण भेदभाव न हो और सभी संसाधनों पर सब का बराबरी का अधिकार हो।इससे ग़रीब और अमीर के बीच की खाई भी कम करने में मदद मिलेगी, परिवार एक कड़ी के रूप में बढ़ेगा और समाज समान रूप से विकसित हो सकेगा।

शुक्रवार, 10 मार्च 2023

महिलाओं का भविष्य सुनिश्चित करने पर ही महिला दिवस की सार्थकता है

 

प्रति वर्ष राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश और दुनिया भर की स्त्रियों के लिए एक निर्धारित तिथि पर उनके बारे में सोचने और कुछ करने की इच्छा ज़ाहिर करने की परंपरा महिला दिवस के रूप में बनती जा रही है।

आम तौर पर इस दिन जो आयोजन किए जाते हैं उनमें ज़्यादातर इलीट यानी संभ्रांत और पढ़े लिखे तथा वे संपन्न महिलायें जो दान पुण्य कर अपना दबदबा बनाए रखना चाहती हैं, उन वर्गों की महिलायें भाग लेती हैं। भाषण आदि होते हैं और कुछ औरतों को जो दीनहीन श्रेणी की होती हैं, उन्हें सिलाई मशीन जैसी चीज़ें देकर अपने बारे में अखबार में छपना और टीवी पर दिखना सुनिश्चित कर वे अपनी दुनिया में लौट जाती हैं। प्रश्न यह है कि क्या उनका संसार बस इतना सा ही है ?


एकाकी जीवन जीतीं महिलाएँ

यह एक खोजपूर्ण तथ्य है कि आँकड़ों के अनुसार दुनिया भर में महिलाओं की औसत आयु पुरुषों से अधिक होती है। उदाहरण के लिए किसी भी घर में देख लीजिये चाहे मेरा हो, दोस्तों और रिश्तेदारों का हो, माँ, बहन, दादी, नानी, बुआ, मौसी जैसे रिश्तों के रूप में कोई न कोई महिला अवश्य होगी जो अकेले जीवन व्यतीत कर रही होगी। किसी का पति नहीं रहा होगा तो किसी का बेटा और अगर हैं भी तो वे काम धंधे, नौकरी, व्यवसाय के कारण कहीं बाहर रहते होंगे। उन्हें कभी फ़ुरसत मिलती होगी या ध्यान आता होगा तो फ़ोन पर बात कर लेते होंगे या सैर सपाटे या घूमने फिरने अथवा मिलने की वास्तविक इच्छा रखते हुए कभी कभार अकेले या बच्चों के साथ आ जाते होंगे।

ये भी बस घड़ी दो घड़ी अकेली बुजुर्ग महिला के साथ बिताकर और जितने दिन उन्हें रहना है, उसमें दूसरे दोस्तों या मिलने जुलने वाले लोगों के पास उठने बैठने चले जाते हैं। मतलब यह कि जिससे मिलने और उसके साथ समय बिताने के लिए आए, उसे बस शक्ल दिखाई और वापिसी का टिकट कटा लिया। कुछ लोग इसलिए भी आते होंगे कि जिस ज़मीन जायदाद, घर मकान पर वो अपना हक़ समझते हैं उसे निपटा दिया जाए और जो महिला है उसके लिए किसी आश्रम आदि की व्यवस्था कर दी जाए ताकि उनके कर्तव्य की पूर्ति हो सके।

इन एकाकी जीवन जी रही महिलाओं की आयु की अवधि एक दो नहीं बल्कि तीस से पचास वर्षों तक की भी हो सकती है।

अब एक दूसरी स्थिति देखते हैं। संयुक्त परिवार में अकेली वृद्ध स्त्री का जीवन कितना एकाकी भरा होता है, इसका अनुमान इस दृश्य को सामने रखकर किया जा सकता है कि उससे बात करने की न बेटों को फ़ुरसत है और न बहुओं को ज़्यादा परवाह है, युवा होते बच्चों की तो बात छोड़ ही दीजिए क्योंकि उनकी दुनिया तो बिलकुल अलग है। ऐसे में अकेलापन क्या होता है, इसका अनुभव केवल तब हो सकता है, जब इस दौर से गुजरना पड़े।

कोरोना काल या अकाल मृत्यु के अभिशाप से ग्रस्त ऐसे बहुत से परिवार मिल जाएँगे जिनमें पति और पुत्र दोनों काल का ग्रास बन गए और घर में सास, बहू या बेटी के रूप में स्त्रियाँ ही बचीं। घर में मर्द न हो तो हालत यह होती है कि अगर वे समझदार हैं तो क़ायदे से जीवन की गाड़ी चलने लगती है और अगर अक़्ल घास चरने चली गई तो फिर लड़ाई झगड़ा, कलह से लेकर अपना हक़ लेने के लिए कोर्ट कचहरी तक की नौबत आ जाती है। ऐसे में भाई बन्धु और रिश्तेदार आम तौर पर जो सलाह देते हैं वह मिलाने की कम अलग करने की ज़्यादा होती है। ऐसे बहुत से परिवारों से परिचय है जो पुरुष के न रहने पर लंबी क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं।

एक तीसरी स्थिति उन महिलाओं की है जिन्होंने किसी भी कारणवश अकेले जीवन जीने का निर्णय लिया। उन्हें भी एक उम्र के बाद अकेलापन खटकने लगता है ख़ासकर ऐसी हालत में जब वे नौकरी से रिटायर हो चुकी हों और अब तक जो कमाया उसके बल पर ठीक ठाक लाइफ़स्टाईल जी रही हों लेकिन एकाकी जीवन की विभीषिका उन पर भी हावी होती है। ऐसी अनेकों महिलाएँ हैं जो कोई काम न रहने पर मानसिक रूप से असंतुलन का शिकार हो जाती हैं, उम्र बढ़ने पर युवा उनका साथ नहीं देतीं और वे भी कब तक पुरानी यादों के सहारे जीवन जियें या कितना घूमें या किसी घरेलू काम में मन लगाएं, अकेलेपन का एहसास तो होने ही लगता है।


महिलाओं पर सख्त नज़र

व्यापक तौर पर देखा जाए किसी भी महिला की आवश्यकताएँ बहुत साधारण होती हैं। इनमें सब से पहले ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय, लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सुविधाओं का होना, रसोई में धुएँ से मुक्ति और सामान्य सुरक्षा का प्रबंध है।


यही सब शहरों में भी चाहिए लेकिन उसमें बस इतना और जुड़ जाता है कि वे अपनी रुचि, योग्यताओं और इच्छा के मुताबिक़ किसी भी क्षेत्र में कुछ करना चाहती हैं तो उन्हें कड़वे अनुभव नहीं हों और वे अपनी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सुरक्षा के साथ रह सकें।

शहरों में एक बात और देखने को मिलती है कि यहाँ ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है जो गाँव देहात में अपना पति और परिवार होते हुए भी घरेलू काम करने आती हैं। वे कमाती तो यहाँ हैं लेकिन उन पर अंकुश पति का ही रहता है मतलब उनकी बराबर निगरानी रखी जाती है।

यही स्थिति उन लड़कियों की होती है जो अपना भविष्य उज्जवल करने की दृष्टि से पढ़ने, नौकरी करने या व्यापार के लिए नगरों और महानगरों में आती हैं। ये कितना भी कोशिश करें इन्हें भी हर बात में दूर बैठे पुरुषों जैसे कि पति, पिता या भाई की अनुमति अपने लगभग सभी फ़ैसलों के लिए लेनी पड़ती है। यह जो महिलाओं पर नज़र रखने की मानसिकता का पहलू है, इस पर न केवल बात होनी चाहिए बल्कि कहीं भी आने जाने और काम करने की आज़ादी की सामाजिक गारंटी होनी चाहिए।


समाज और क़ानून

महिलाओं की अभिव्यक्ति और उन्हें कुछ भी करने की आज़ादी मिलना एक सामाजिक पक्ष है लेकिन उनके अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए क़ानून बनाने और उन पर अमल होना सुनिश्चित करना सरकार का जिम्मेदारीपूर्ण कार्यवाही करना है। इसमें समान काम के लिए समान वेतन, पद देते समय उनकी गरिमा बनाए रखना और उनकी सुरक्षा की जवाबदेही वाली व्यवस्था बनाना आता है।

इसके साथ यह सुनिश्चित करना भी समाज और सरकार का कर्तव्य है कि वे नीर क्षीर विवेक अर्थात् दूध का दूध और पानी का पानी करने के सिद्धांत पर चलते हुए महिला हो या पुरुष दोनों के साथ समान न्याय की व्यवस्था लागू करने के लिए ठोस कदम उठाये। क़ानून होते हुए भी व्यवहार में भेदभाव किया जाना बंद हो। ऐसा होने पर ही महिला दिवस की सार्थकता है अन्यथा यह केवल एक परिपाटी बन कर रह जायेगा।


शुक्रवार, 3 मार्च 2023

सपूत हो या कपूत , पुत्र दिवस पर पिता - पुत्र के संबंधों की व्याख्या क्या हो ?

 


एक कहावत है कि अगर बेटा कुपुत्र है तो उसके लिए धन संपत्ति जुटाना और छोड़कर क्यों जाना क्योंकि वह तो इसे नष्ट ही करेगा। इसके विपरीत अगर सुपुत्र है तो भी क्यों यह सब करना क्योंकि वह तो अपनी योग्यता से सब कुछ जुटा ही लेगा।

इस सोच का आधार यही रहा होगा कि जीवन में जो कुछ जमा करो, वह अपने अर्थात् माता पिता के उपयोग और उपभोग के लिए ही है। मतलब यह कि संतान के लिए ज़मीन जायदाद, रुपया पैसा जमा करने का कोई अर्थ नहीं, यह सब जोड़ना अपने सुख और आरामदायक ज़िंदगी बिताने के लिए ही होना चाहिए। अपने मरने के बाद कौन इसका कैसा इस्तेमाल करेगा, यह सोचकर अपना वर्तमान बिगाड़ने की ज़रूरत नहीं है।

पुत्र दिवस

आज यह विषय इसलिए चुना क्योंकि कुछ वर्षों से अमेरिका और इंग्लैंड जैसे विकसित देशों और अब भारत में भी चार मार्च को राष्ट्रीय पुत्र दिवस मनाने की परंपरा चल पड़ी है।

पश्चिमी देशों में वयस्क होने पर बेटे को अपना डेरा तंबू अलग गाड़ने की परम्परा उनके विकसित देश होने के दौर से पड़ती गई और अब वहाँ यह मामूली बात। है। पिता यह सोचकर अपने को परेशान महसूस नहीं करता कि बेटा बालिग़ होकर अपनी दुनिया अलग बसाने जा रहा है बल्कि वह सहयोग करता है कि अलग होने की प्रक्रिया के दौरान बेटे को कुछ मदद चाहिये तो पिता इसके लिए तैयार है।

कह सकते हैं कि एकल परिवार यानी अब बड़ा हो गया हूँ तो मुझे अपने जीवन की दिशा स्वयं तैयार करनी है और मेरी जो भी दशा होगी. वह मेरी अपनी बनाई होगी, इसके लिए ख़ुद ज़िम्मेदार हूँ और मातापिता तो क़तई नहीं। इसके साथ ही उन्होंने अब तक मुझे जो जीवन दिया, उसके लिए उनका आभार मानने या ऋणी महसूस करने की न तो आवश्यकता है और न ही उसकी उम्मीद की जाती है।

फ़लसफ़ा यही है कि मैं यह करूँ, वह करूँ, मेरी मर्ज़ी, इसमें किसी की दख़लंदाज़ी नहीं और माता पिता की तो बिलकुल नहीं। अलग रहने और अकेले सभी फ़ैसले करने की आज़ादी मिलने की आदत पड़ जाने से बाप बेटे को एक दूसरे पर निर्भर रहने से मुक्ति मिल जाती है। वे न तो सोचते और कहते हैं कि हमने तेरे लिए यह किया और तू हमारे साथ यह कर रहा है या आपने मेरे लिए किया ही क्या है, जैसी बातें दोनों के दिमाग़ में आम तौर से नहीं आतीं। भावुक होकर या भावनाओं में बहकर अपने मन या इच्छा के ख़िलाफ़ कुछ कहने या करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जो कुछ होता है या जैसे भी संबंध बनते या बनाए जाते हैं, वे प्रैक्टिकल यानी व्यावहारिक आधार पर बनते हैं।

इन देशों में परिवारों के लिए विकसित होने का यही अर्थ है कि न अपने साथ कोई ज़्यादती होने दो और न ही अपने पिता से उम्मीद रखो कि उनसे क्या मिला और क्या नहीं मिला या यह मिलना चाहिये जो नहीं मिल रहा और उसे हासिल करने के लिए मुझे यह करना है। इस व्यवस्था में एक अच्छी बात यह है कि पिता के न रहने पर संतानों के बीच झगड़े होने की संभावना न के बराबर रहती है क्योंकि जिसे जो मिलता है, उसे उसकी उम्मीद नहीं होती, इसलिए वह उसे बिना किसी शिकायत के स्वीकार कर लेता है।

राष्ट्रीय पुत्र दिवस पर मक़सद यही रहता है कि पिता और पुत्र अपने परिवारों सहित एक दूसरे से मेलमिलाप करें, चाहे वर्ष में एक बार ही सही। इसके पीछे यही भावना है कि अगर यह न हो और बरसों तक न मिलें तो शायद अचानक सामना होने पर एक दूसरे को पहचान भी न पाएँ और अजनबियों की तरह मिलें। असल में होता यह है कि अलग रहने से आपस में बाप बेटे से ज़्यादा दोस्ती का रिश्ता पनप चुका होता है जिसमें एक दूसरे के प्रति मित्र की भाँति स्नेह और लगाव रहता है। इस स्थिति में ताने, उलाहने देने और शिकवे शिकायत करने जैसे हालात नहीं बनते। बस आपस में मिलजुल लिए, एक दूसरे की कुशल पूछी और फिर अपने अपने बसेरों पर जाने के लिए विदा हो गए। न मिलते और बिछड़ते समय रोना धोना और न ही मन में कोई मलाल रखना, बस मुस्कान लिए आए और मुस्कराहट बिखेरते चले गये।

भारतीय व्यवस्था

अब जहां तक हमारे देश की बात है, हम अभी विकासशील हैं मतलब विकसित होने की राह पर चल रहे हैं। हम संयुक्त परिवार व्यवस्था में पालन पोषण होने के लिए जाने जाते हैं। पारिवारिक परंपराओं को मानने और उन पर चलने को मज़बूर तक कर दिए जाने की बाध्यता रहती है। पुत्र पर तो इसकी ज़्यादा ही ज़िम्मेदारी रहती है। उसके किसी भी व्यवहार या कदम से जिसमें पिता की सहमति या आज्ञा न ली गई हो, पिता के लिए नाक कटने जैसा हो जाता है। पुत्र चाहे कितना भी संभलकर चले, पिता के लिए उसके किसी भी काम को नकारना बहुत सामान्य सी बात है। पुत्र पर पिता की पगड़ी उछालने, इज़्ज़त की बखिया उधेड़ने और सरे आम मुँह पर कालिख पोतने के आरोप लगना भारतीय परिवारों में आम बात है। पुत्र यही सोचता रहता है कि उसने आख़िर ऐसा किया ही क्या है जो पिता इतना बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं। यहीं से दोनों के बीच अनबोलेपन अर्थात् बोलचाल बंद होने से लेकर एक दूसरे की सूरत तक न देखने की परंपरा शुरू हो जाती है। संयुक्त परिवार में यह स्थिति असहनीय हो जाती है और हरेक सदस्य पर इसका असर पड़ना स्वाभाविक है।

संबंध और तनाव

हमारे परिवारों में पिता को सबसे ज़्यादा चिढ़ या परेशानी अपने बेटे के दोस्तों से होती है। वो मान कर चलते हैं कि यही वे लोग हैं जिनकी संगत में बेटे का बिगड़ना तय है। इसी के साथ वे अपनी जानकारी में आए या जान पहचान वालों के बेटों की तुलना अपने बेटे और उसके मित्रों से करने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि पुत्र अपना कोई दोस्त बना ही नहीं पाता। पिता द्वारा पुत्र को लेकर अक्सर ग़ैरज़रूरी टिप्पणी करना, उसकी सराहना के स्थान पर आलोचना और हरेक काम में मीनमेख निकालना तथा पुत्र को चाहे वह कितना भी बड़ा हो जाए, नादान, नासमझ मानकर कुछ भी करने से पहले उसकी हिम्मत तोड़ देने जैसा है। नतीज़ा यह होता है कि जाने अनजाने पुत्र धीरे धीरे हीनभावना का शिकार होने लगता है, उसमें अपने स्तर पर या बलबूते कुछ करने का साहस कमज़ोर पड़ता जाता है और वह एक तरह से जीवन भर पिता की उँगली थामे अर्थात् प्रत्येक निर्णय के लिए उन पर निर्भर रहने की आदत का ग़ुलाम बनने लगता है।

अब क्योंक भारत तेज़ी से बदल रहा है, इसलिए राष्ट्रीय पुत्र दिवस पर पिताओं को यह सोचना होगा कि वे अपने पुत्र को भारतीय परंपरा के अनुसार जीवन भर आश्रित रखना चाहते हैं या उसे वयस्क होते ही अपनी तथाकथित छत्रछाया से मुक्त कर अपने पैरों पर खड़े होकर अपनी मंज़िल तक उसके अपने फ़ैसलों से पहुँचने देना चाहते हैं।

पुत्र अकेले अपनी राह बना सकता है, उसके लिए पारिवारिक वैभव, धन दौलत पाने के लोभ को उससे जितना दूर रखा जाए उतना ही पुत्र और पिता दोनों के लिए बेहतर होगा। पिता के मन में पुत्र के लिए अपनी विरासत छोड़ने का भाव नहीं होगा तो फिर पुत्र के मन में उसे पाने का लोभ भी नहीं होगा। जब ऐसी सोच बन जाएगी तो फिर संतानों के बीच विवाद से लेकर संघर्ष भी नहीं होंगे। ऐसी घटनायें भी कम होंगी जिनमें भाई बहनों के बीच मुक़दमे चलें और वे एक दूसरे के लिए शुभ की बजाय अशुभ कामना करें।

पिता और पुत्र दोनों को स्वीकार करना ही होगा कि अब संयुक्त परिवार व्यवस्था का टूटना ही भविष्य है। एकल परिवार के रूप में निजी संबंधों की व्याख्या करनी होगी जिसमें अलग अलग रहते हुए भी मिलना जुलना होता रहे और बिखराव के स्थान पर अच्छा बुरा वक़्त आने पर आपस में जुड़ाव का अनुभव कर सकें। पिताओं को अपने पुत्र की तरफ़दारी से बचना होगा और पुत्र को अपने पिता या परिवार से कुछ मिलने की उम्मीद रखने से दूर रहना होगा।आपसी तनाव न होने देने के लिए न तो किसी चीज़ की अपेक्षा हो और न ही इसे लेकर एक दूसरे की उपेक्षा हो, यही राष्ट्रीय पुत्र दिवस का लक्ष्य होना चाहिए।