विषय बहुत संवेदनशील और गंभीर है लेकिन समझ में आना और उस पर चर्चा करना आवश्यक है। जन्म के समय डॉक्टर, नर्स, दाई या जिसने भी प्रसव कराया हो, उसके द्वारा नवजात शिशु का लिंग निर्धारण जीवन भर मान्य होता है अर्थात् लड़का, लड़की या थर्ड जेंडर।
ना काहू से दोस्ती,ना काहू से बैर
शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023
स्त्री पुरुष के अतिरिक्त मनुष्य की अन्य ‘ प्रजातियों ’ को सामान्य जीवन का अधिकार
शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023
सरकार और प्रशासन के ढीलेपन से ही उपभोक्ता अधिकारों का हनन होता है
प्रतिवर्ष 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता दिवस मनाये जाने की परंपरा है। सन् 1900 के आसपास सबसे पहले अमेरिका में इस बात की चर्चा शुरू हुई कि अगर कोई व्यक्ति किसी निर्माता या दुकानदार की बेईमानी का शिकार होता है तो उसे क्या करना चाहिए ? समय के साथ इस बारे में जागरूकता बढ़ी और इसने एक आंदोलन का रूप ले लिया। यह लहर यूरोप से होती हुई एशियाई देशों और फिर पूरी दुनिया में फैल गई और आज सभी देशों में उपभोक्ता अधिकारों को लेकर क़ानून बन चुके हैं। अमीर देशों में अब यह पर्यावरण, प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग और जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों को सामान्य उपभोक्ता से जोड़ने तक का विषय बन चुका है। इस बार का थीम है स्वच्छ ऊर्जा के बारे में सामान्य नागरिकों को जागरूक किया जाए।
शनिवार, 8 अप्रैल 2023
न्याय सस्ता हो या महँगा, देर से मिला केवल सजावटी होता है
देश की एक विख्यात संस्था टाटा ट्रस्ट पिछले कुछ वर्षों से भारत की न्याय व्यवस्था को लेकर एक रिपोर्ट जारी करती है जिसे तैयार करने में अनेक जानी मानी संस्थाएँ और न्यायिक विषयों के जानकार शामिल रहते हैं। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के रूप में यह दस्तावेज़ सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है। 2022 की रिपोर्ट हाल ही में आई है। इसमें कुछ ऐसे तथ्य और वास्तविकताएँ हैं जिन पर सामान्य व्यक्ति का ध्यान जाना ज़रूरी है क्योंकि इनका स्वरूप केवल ऐकडेमिक न होकर जन साधारण के चिंतन मनन के लिए भी है।
शनिवार, 1 अप्रैल 2023
धूल मिट्टी फाँकना, गंदला पानी, जहरीली हवा, कानफोड़ू शोर और रेतीला-अधपका भोजन, क्या यही औद्योगिक विकास है?
आजादी के अमृत काल में भी ऐसा लगता है कि देशवासी ऐसे युग में जी रहे हैं जहां रेत, राख, आँधी, धूल के बवंडर जहां भी जाओ, उठते ही रहते हैं। आसपास नदी हो तो उसमें नहाना तो दूर उसका पानी पीने से भी डर लगता है। खुली हवा में सांस लेने का मन करे तो धुएँ से दम घुटता सा महसूस होता है और आराम से कुछ खाने की इच्छा हो तो मुँह में अन्न के साथ रेतीला स्वाद आए बिना नहीं रहता।
औद्योगिक विनाशलीला
यह स्थिति किसी एक प्रदेश की नहीं बल्कि पूरे भारत की है जहां उद्योग स्थापित हैं और जिनकी संख्या दिन दूनी रात चैगुनी गति से बढ़ रही है। अब क्योंकि हम औद्योगिक उत्पादन में विश्व का सिरमौर बनना चाहते हैं तो इसके लिए किसी भी चीज की बलि दी जा सकती है, चाहे सेहत या सुरक्षा हो, खानपान या रहन सहन हो !
मजे की बात यह है कि इन सब के लिए भारी भरकम नियम, कानून-कायदे हैं जिन्हें पढ़ने, देखने और समझने की जरूरत तब पड़ती है जब कोई हादसा हो जाता है और धन संपत्ति नष्ट होती है तथा बड़ी संख्या में लोगों की जान चली जाती है। उसके बाद लंबी अदालती कार्यवाही और मुआवजे का दौर चलता है। कुछ बदलता नहीं बल्कि इंसानियत को ठेंगा दिखाते हुए औद्योगिक विकास के नाम पर शोषण, अत्याचार और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन चलता रहता है।
एक अनुभव
वैसे तो लेखन और फिल्म निर्माण के अपने व्यवसाय के कारण अक्सर दूर दराज से लेकर गाँव देहात, नगरों और महानगरों और बहुत प्रचारित स्मार्ट शहरों में आना जाना होता रहता है लेकिन इस बार जो अनुभव हुआ उसे पाठकों के साथ बाँटने से यह उम्मीद है कि शायद सरकार और प्रशासन की नींद खुल सके।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा से जुड़ा एक क्षेत्र है जिसमें सिंगरौली, रॉबर्ट्सगंज, शक्ति नगर और समीपवर्ती इलाके आते हैं। यहाँ पहुँचने के लिए वाराणसी से सड़क मार्ग से जाना था। हालाँकि इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में सड़कों की हालत में बहुत सुधार हुआ है, पक्की सड़कें बनी हैं, हाईवे पहले से ज्यादा सुविधाजनक है, लेकिन कुछ स्थानों पर जबरदस्त जाम और अनियंत्रित ट्रैफिक से भी जूझना पड़ता है।
यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से मालामाल है और यहाँ खनिज संपदा की बहुतायत है। जंगल का क्षेत्र भी है जहां कभी लूटपाट से लेकर हत्या तक होने का डर लगा रहता था। सुनसान इलाकों से सही सलामत गुजरना कठिन हुआ करता था लेकिन अब हालत में काफी सुधार है। इस पूरे क्षेत्र में औद्योगिक गतिविधियों के कारण बहुत कुछ बदला है, नई बस्तियाँ बसी हैं, टाउनशिप का निर्माण हुआ है और जरूरी सुविधाओं का विकास हुआ है।
उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में सरकारी और निजी औद्योगिक संस्थान लगाना फायदे का सौदा रहा है और इसी के साथ गैर कानूनी माइनिंग और तस्करी उद्योग भी बहुत तेजी से पनपा है। माफिया गिरोह चाहे वन प्रदेश हो या मैदानी, सभी जगह सक्रिय हैं। इनके साथ सरकारी कारिंदों और यहाँ तक कि पुलिस की मिलीभगत के किस्से आम हैं।
उदाहरण के लिए स्टोन क्रशर अनधिकृत रूप से कब्जाई जमीन पर धड़ल्ले से चल रहे हैं। पत्थरों की कटाई और पिसाई से निकला रेत इनकी कमाई का बहुत वड़ा साधन है।
अब इसका दूसरा पक्ष देखिए।आप सड़क से जा रहे हैं, अचानक ऊपर कुछ धुँध और बादलों के घिरने का सा एहसास होता है और गाड़ी के शीशे खोलकर या बाहर निकलकर ताजी हवा में सांस लेनी चाही तो ऐसा लगा कि दम घुट जाएगा। क्रशरों से निकलता शोर कान के पर्दे फाड़ सकने की ताकत रखता है। नाक की गंध और मुँह का स्वाद धूल मिट्टी और रेत फाँकने जैसा हो जाता है। रेत की तेज बौछार का भी सामना करना पड़ सकता है और पहने कपड़े झाड़ने पड़ सकते हैं।
अनुमान लगाइए कि ऐसे में जो मजदूर और दूसरे लोग यहाँ काम करने आते हैं, उनका क्या हाल होता होगा? पूछने पर पता चला कि यह इलाका घोर गरीबी के चंगुल में है और गाँव के गाँव वीरान होते जा रहे हैं। बंधुआँ मजदूरी की प्रथा देखनी हो तो यहाँ मिल सकती है। यही नहीं लोगों की जीने की इच्छा नहीं रही क्योंकि तरह तरह की बीमारियों से ये लोग घिरे रहते हैं।
कमाल की बात यह है कि जो मालिक है वह दनादन अमीर होता जाता है क्योंकि कानूनन हो या अवैध, खनन में मुनाफा बहुत है।
चलिए आगे बढ़ते हैं। सड़क के दोनों ओर दूर से देखने पर पहाड़ियों का भ्रम होता है। जानकारी मिलती है कि ये रेत और मिट्टी के विशाल टीले हैं जो समय गुजरने के साथ प्रतिदिन ऊँचे होते जाते हैं। जब हवा चलती है तो यह उड़ कर आसपास की बस्तियों के घरों में घुस जाते हैं और मुँह तथा चेहरे का रंग बिगाड़ने के साथ खाने का स्वाद भी कसैला और किरकिरा कर देते हैं।
यहाँ कोयले से बिजली पैदा करने वाले थर्मल पॉवर प्लांट हैं। घरों को रौशनी से नहलाने के साथ साथ इनसे निकलने वाला धुआँ और राख लोगों की जिंदगी कम करने में एक विशाल दैत्य की भूमिका निभा रहा है। डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, लगातार रहने वाली खांसी और बुखार यहाँ के निवासियों की दिनचर्या का अंग बन चुके हैं।
जरा अंदाजा लगाइये कि जिस जबरदस्त शोर में आपको क्षण भर खड़े होने के लिए कानों में ईयर बड्स लगाने पड़ सकते हैं, उसमें यहाँ काम करने वालों को सुरक्षा साधनों के इस्तेमाल किए बिना या बहुत कम पालन करते हुए देखना आम बात है। आप कितना भी एयर कंडीशंड माहौल में रहिए, सामान्य कार्यों के लिए खुली जगह में आना ही पड़ता है। तब यहाँ काम करने और रहने वालों के लिए जीवन किसी अभिशाप से कम नहीं लगता।
नौजरीपेशा अपना ट्रांसफर करा सकते हैं लेकिन स्थानीय आबादी कहाँ जाए, उसे तो यहीं रहना और जीना मरना है। स्वास्थ्य सुविधाएँ इतनी नाकाफी हैं कि स्त्रियों को प्रसव के लिए दो तीन सौ किलोमीटर दूर वाराणसी और अन्य शहरों में रेफर कर दिया जाता है। यदि सरकारी और निजी संस्थानों द्वारा अपने कर्मचारियों के लिए बनाई गई टाउनशिप में अस्पताल और डिस्पेंसरी तथा दवाईयों की सुविधा पूरे क्षेत्रवासियों के लिए न हो तो लोग कैसे जिंदा रहेंगे, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है।
क्या किया जा सकता है ?
औद्योगिक विकास की गति को कम करना देश की अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह हो सकता है लेकिन कुछ ऐसे उपाय तो किए ही जा सकते हैं जिनसे जीवन पर विनाशकारी प्रभाव कम से कम पड़े। इन उपायों में सबसे पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूलन के अंतर्गत बने नियमों और आदेशों का कड़ाई से पालन अनिवार्य है। वैसे यह भी एक वास्तविकता है कि इस ट्रिब्यूनल की अनदेखी अधिकतर सरकारी उपक्रमों द्वारा ही की जाती है। जो प्राइवेट उद्योग् हैं, उनके लिए तो यह बेकार का बखेड़ा है और उनके पास किसी भी नियम को अपने पक्ष में करने की असीम ताकत है, चाहे वह धन की हो या बाहुबल की।
उदाहरण के लिए जब यह तय है कि हैजार्डस यानी स्वास्थ्य और सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक उद्योग घनी आबादी के इलाकों में लग ही नहीं सकते तो फिर रिहायशी इलाकों में क्यों इनकी भरमार है ? इसके साथ ही जब नियम है कि सेफ्टी प्रावधानों के तहत किसी भी कर्मचारी, कामगारों और लोकल सप्लायरों का जरूरी सुरक्षा साधनों से लैस होकर आये बिना काम पर नहीं आया जा सकता तो फिर कदम कदम पर इनकी अनदेखी क्यों देखने को मिलती है ?
इससे भी ज्यादा जरूरी बात कि जब हमारे वैज्ञानिक संस्थानों ने आधुनिक टेक्नोलॉजी विकसित कर ली है तो उनका इस्तेमाल इन संस्थानों द्वारा क्यों नहीं किया जाता ताकि जल और वायु प्रदूषण के खतरों को कम किया जा सके ?
यह विवरण तो एक बानगी है और देश के अन्य प्रदेशों में औद्योगिक विकास के विनाशकारी पक्ष को समझने के लिए काफी है। एक बात और कि इन इलाकों से अपना काम कर लौटने के बाद कई दिन तक बीमार रहना पड़ सकता है। खांसी और बलगम तथा बुखार और दस्त की शिकायत कई दिन तक रह सकती है। क्या इन सभी औद्योगिक क्षेत्रों में रहने वाले करोड़ों लोगों के जीवन से खिलवाड़ किए जाने पर कोई रोक लग सकती है? जरा सोचिए!
शुक्रवार, 24 मार्च 2023
अजन्मे बच्चे के अधिकार , क़ानूनी मान्यता और भारतीय संस्कार
शिशु के गर्भ में रहने अर्थात् उसके जन्म लेने तक उसके अधिकार हैं, यह हमारे देशवासियों के लिए कुछ अटपटा हो सकता है लेकिन असामान्य या बेतुका क़तई नहीं है। बहुत से देशों में इसके लिए क़ानून भी हैं। इसके साथ ही उन्हें तरोताज़ा बनाए रखने के लिए प्रतिवर्ष 25 मार्च को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गर्भ में पल रहे शिशु के लिए विशेष दिवस मनाए जाने की परंपरा है।
शुक्रवार, 10 मार्च 2023
महिलाओं का भविष्य सुनिश्चित करने पर ही महिला दिवस की सार्थकता है
प्रति वर्ष राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश और दुनिया भर की स्त्रियों के लिए एक निर्धारित तिथि पर उनके बारे में सोचने और कुछ करने की इच्छा ज़ाहिर करने की परंपरा महिला दिवस के रूप में बनती जा रही है।
आम तौर पर इस दिन जो आयोजन किए जाते हैं उनमें ज़्यादातर इलीट यानी संभ्रांत और पढ़े लिखे तथा वे संपन्न महिलायें जो दान पुण्य कर अपना दबदबा बनाए रखना चाहती हैं, उन वर्गों की महिलायें भाग लेती हैं। भाषण आदि होते हैं और कुछ औरतों को जो दीनहीन श्रेणी की होती हैं, उन्हें सिलाई मशीन जैसी चीज़ें देकर अपने बारे में अखबार में छपना और टीवी पर दिखना सुनिश्चित कर वे अपनी दुनिया में लौट जाती हैं। प्रश्न यह है कि क्या उनका संसार बस इतना सा ही है ?
एकाकी जीवन जीतीं महिलाएँ
यह एक खोजपूर्ण तथ्य है कि आँकड़ों के अनुसार दुनिया भर में महिलाओं की औसत आयु पुरुषों से अधिक होती है। उदाहरण के लिए किसी भी घर में देख लीजिये चाहे मेरा हो, दोस्तों और रिश्तेदारों का हो, माँ, बहन, दादी, नानी, बुआ, मौसी जैसे रिश्तों के रूप में कोई न कोई महिला अवश्य होगी जो अकेले जीवन व्यतीत कर रही होगी। किसी का पति नहीं रहा होगा तो किसी का बेटा और अगर हैं भी तो वे काम धंधे, नौकरी, व्यवसाय के कारण कहीं बाहर रहते होंगे। उन्हें कभी फ़ुरसत मिलती होगी या ध्यान आता होगा तो फ़ोन पर बात कर लेते होंगे या सैर सपाटे या घूमने फिरने अथवा मिलने की वास्तविक इच्छा रखते हुए कभी कभार अकेले या बच्चों के साथ आ जाते होंगे।
ये भी बस घड़ी दो घड़ी अकेली बुजुर्ग महिला के साथ बिताकर और जितने दिन उन्हें रहना है, उसमें दूसरे दोस्तों या मिलने जुलने वाले लोगों के पास उठने बैठने चले जाते हैं। मतलब यह कि जिससे मिलने और उसके साथ समय बिताने के लिए आए, उसे बस शक्ल दिखाई और वापिसी का टिकट कटा लिया। कुछ लोग इसलिए भी आते होंगे कि जिस ज़मीन जायदाद, घर मकान पर वो अपना हक़ समझते हैं उसे निपटा दिया जाए और जो महिला है उसके लिए किसी आश्रम आदि की व्यवस्था कर दी जाए ताकि उनके कर्तव्य की पूर्ति हो सके।
इन एकाकी जीवन जी रही महिलाओं की आयु की अवधि एक दो नहीं बल्कि तीस से पचास वर्षों तक की भी हो सकती है।
अब एक दूसरी स्थिति देखते हैं। संयुक्त परिवार में अकेली वृद्ध स्त्री का जीवन कितना एकाकी भरा होता है, इसका अनुमान इस दृश्य को सामने रखकर किया जा सकता है कि उससे बात करने की न बेटों को फ़ुरसत है और न बहुओं को ज़्यादा परवाह है, युवा होते बच्चों की तो बात छोड़ ही दीजिए क्योंकि उनकी दुनिया तो बिलकुल अलग है। ऐसे में अकेलापन क्या होता है, इसका अनुभव केवल तब हो सकता है, जब इस दौर से गुजरना पड़े।
कोरोना काल या अकाल मृत्यु के अभिशाप से ग्रस्त ऐसे बहुत से परिवार मिल जाएँगे जिनमें पति और पुत्र दोनों काल का ग्रास बन गए और घर में सास, बहू या बेटी के रूप में स्त्रियाँ ही बचीं। घर में मर्द न हो तो हालत यह होती है कि अगर वे समझदार हैं तो क़ायदे से जीवन की गाड़ी चलने लगती है और अगर अक़्ल घास चरने चली गई तो फिर लड़ाई झगड़ा, कलह से लेकर अपना हक़ लेने के लिए कोर्ट कचहरी तक की नौबत आ जाती है। ऐसे में भाई बन्धु और रिश्तेदार आम तौर पर जो सलाह देते हैं वह मिलाने की कम अलग करने की ज़्यादा होती है। ऐसे बहुत से परिवारों से परिचय है जो पुरुष के न रहने पर लंबी क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं।
एक तीसरी स्थिति उन महिलाओं की है जिन्होंने किसी भी कारणवश अकेले जीवन जीने का निर्णय लिया। उन्हें भी एक उम्र के बाद अकेलापन खटकने लगता है ख़ासकर ऐसी हालत में जब वे नौकरी से रिटायर हो चुकी हों और अब तक जो कमाया उसके बल पर ठीक ठाक लाइफ़स्टाईल जी रही हों लेकिन एकाकी जीवन की विभीषिका उन पर भी हावी होती है। ऐसी अनेकों महिलाएँ हैं जो कोई काम न रहने पर मानसिक रूप से असंतुलन का शिकार हो जाती हैं, उम्र बढ़ने पर युवा उनका साथ नहीं देतीं और वे भी कब तक पुरानी यादों के सहारे जीवन जियें या कितना घूमें या किसी घरेलू काम में मन लगाएं, अकेलेपन का एहसास तो होने ही लगता है।
महिलाओं पर सख्त नज़र
व्यापक तौर पर देखा जाए किसी भी महिला की आवश्यकताएँ बहुत साधारण होती हैं। इनमें सब से पहले ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय, लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सुविधाओं का होना, रसोई में धुएँ से मुक्ति और सामान्य सुरक्षा का प्रबंध है।
यही सब शहरों में भी चाहिए लेकिन उसमें बस इतना और जुड़ जाता है कि वे अपनी रुचि, योग्यताओं और इच्छा के मुताबिक़ किसी भी क्षेत्र में कुछ करना चाहती हैं तो उन्हें कड़वे अनुभव नहीं हों और वे अपनी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सुरक्षा के साथ रह सकें।
शहरों में एक बात और देखने को मिलती है कि यहाँ ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है जो गाँव देहात में अपना पति और परिवार होते हुए भी घरेलू काम करने आती हैं। वे कमाती तो यहाँ हैं लेकिन उन पर अंकुश पति का ही रहता है मतलब उनकी बराबर निगरानी रखी जाती है।
यही स्थिति उन लड़कियों की होती है जो अपना भविष्य उज्जवल करने की दृष्टि से पढ़ने, नौकरी करने या व्यापार के लिए नगरों और महानगरों में आती हैं। ये कितना भी कोशिश करें इन्हें भी हर बात में दूर बैठे पुरुषों जैसे कि पति, पिता या भाई की अनुमति अपने लगभग सभी फ़ैसलों के लिए लेनी पड़ती है। यह जो महिलाओं पर नज़र रखने की मानसिकता का पहलू है, इस पर न केवल बात होनी चाहिए बल्कि कहीं भी आने जाने और काम करने की आज़ादी की सामाजिक गारंटी होनी चाहिए।
समाज और क़ानून
महिलाओं की अभिव्यक्ति और उन्हें कुछ भी करने की आज़ादी मिलना एक सामाजिक पक्ष है लेकिन उनके अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए क़ानून बनाने और उन पर अमल होना सुनिश्चित करना सरकार का जिम्मेदारीपूर्ण कार्यवाही करना है। इसमें समान काम के लिए समान वेतन, पद देते समय उनकी गरिमा बनाए रखना और उनकी सुरक्षा की जवाबदेही वाली व्यवस्था बनाना आता है।
इसके साथ यह सुनिश्चित करना भी समाज और सरकार का कर्तव्य है कि वे नीर क्षीर विवेक अर्थात् दूध का दूध और पानी का पानी करने के सिद्धांत पर चलते हुए महिला हो या पुरुष दोनों के साथ समान न्याय की व्यवस्था लागू करने के लिए ठोस कदम उठाये। क़ानून होते हुए भी व्यवहार में भेदभाव किया जाना बंद हो। ऐसा होने पर ही महिला दिवस की सार्थकता है अन्यथा यह केवल एक परिपाटी बन कर रह जायेगा।
शुक्रवार, 3 मार्च 2023
सपूत हो या कपूत , पुत्र दिवस पर पिता - पुत्र के संबंधों की व्याख्या क्या हो ?