रिश्वतखोरी पर लगाम
यह सही है कि पिछले पाँच वर्षों में राजनीतिज्ञों और उद्योगपतियों के गठजोड़ से निकले घोटालों और बड़े स्तर पर किए जा सकने वाले भ्रष्टाचार के किस्से सुनने को नहीं मिले। जनता अब हर बात को अपने ही तर्कों से सुलझाने में माहिर होती जा रही है।
यही कारण है कि राहुल गांधी द्वारा राफेल को लेकर प्रधानमंत्री पर लगाए आरोपों को जनता ने अनसुना कर दिया। जनता ने राहुल गांधी के इस तर्क को भी मजाक में ही लिया जब उन्होंने 72 हजार रुपए उद्योगपति अनिल अम्बानी की जेब से निकालकर देने की बात की। यह कोई अंधेर नगरी चौपट राजा का युग नहीं है बल्कि कानून से चलने वाला देश है और हकीकत यह है कि अब अदालत को अपने हाथ की कठपुतली और जाँचकर्ता एजेन्सी को खिलौना बनाकर रखने की परम्परा पर लगाम लग चुकी है।
भ्रष्टाचार की दूसरी परत अभी वैसी ही बनी हुई है जैसी पहले हुआ करती थी। यह है सरकारी दफ्तरों में बाबू से लेकर अधिकारी तक की मुट्ठी गरम किए बिना अपना कोई वाजिब काम करा लेना। इस तबके में हालाँकि काफी हद तक रिश्वतखोरी का चलन अब डरते डरते रिश्वत लेने का हो गया है लेकिन इसमें कमी नहीं हुई है। पहले जहाँ मेज की दराज खोलकर उसमें रकम डलवा ली जाती थी अब यह काम दरवाजे की ओट से होने लगा है, लेकिन इसमें कमी नहीं आई है। इसका उदाहरण राफेल की फाइल से गोपनीय दस्तावेज एक अखबार के दफ्तर तक पहुँच जाने का है जो अपनी कहानी खुद बता रहा है।
वर्तमान सरकार यदि इस स्तर पर की जाने वाली रिश्वतखोरी को रोक सकने के ठोस उपाय कर दे तो इससे बहुत राहत मिलेगी। यह सही है की टेंडर भरने से लेकर भुगतान तक ऑनलाइन हो जाने से दफ्तरी कार्यवाही में राहत देखने को मिल रही है लेकिन उसके बाद कुछ भी काम हो उसके लिए रिश्वत का सहारा लिए बिना कोई काम होना अभी भी बहुत मुश्किल है।
इसका कारण पुराने नियम हैं जो ज््यादातर बनाए ही इसीलिए गए थे कि उनके अनुसार चलना हो तो वे उतने जटिल हैं कि बिना सम्बंधित बाबू और अधिकारी की सहायता के पूरे ही नहीं हो सकते। इसके लिए उसे रिश्वत देनी ही पड़ती है क्योंकि इन बहुत से बेसिरपैर के नियमों की काट उसी के पास होती है।
जिस तरह अपने पिछले कार्यकाल में मोदी सरकार ने अनेक पुराने और बेकार के कानून समाप्त करने की दिशा में प्रशंसनीय काम किया था, उसी प्रकार सरकारी हो या गैर सरकारी, वहाँ रिश्वतखोरी और कामचोरी को बढ़ावा देने वाले नियमों को समाप्त करने की दिशा में पहला कदम उठाने का काम सबसे पहले इस सरकार को करना चाहिए क्योंकि तब ही उसकी विश्वसनीयता पर मुहर लग पाएगी।
शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति पूरे देश में हो जिसने अपना काम निकलवाने के लिए रिश्वत का सहारा न लिया हो। यह एक ऐसी सच्चाई है जो केवल तब ही बदली जा सकती है जब हम नैतिक, मानसिक और व्यावहारिक स्तर पर इसका हल निकालें।
शिक्षा और बेरोजगारी
यह चुनौतियाँ ऐसी हैं जो आजादी के बाद से आजतक उनका हल निकालने में सभी सरकारें नाकामयाब रहीं हैं। इसका कारण ऐसा नहीं है कि हमारे शासक जानते न हो लेकिन कभी इस पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत नहीं समझी गयी। यह कहना और नारा लगाना कि शिक्षा ऐसी हो जो रोजगार के काबिल बनाए तब टाँय टाँय फुस्स हो जाता है जब शिक्षित बेरोजगारों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती ही जाती है।
जो पढ़ा वो काम न आया और जो काम आया वो बिना ट्रेनिंग के हो न पाया, ऐसी हालत है हमारी शिक्षा व्यवस्था और उसके लिए बनाई गयी नीतियों की तो फिर कैसे कोई उम्मीद करे कि देश बेरोजगारी के कलंक को मिटा सकता है। यह सुनते सुनते तो अब कान भी पकने लगे हैं कि शिक्षा नीति में आमूलचूल परिवर्तन होगा, उसे रोजगारपरक बनाया जाएगा
आखिर ऐसी क्या मजबूरी है जो शिक्षा को सरकारी नौकरी पाने तक ही सीमित रखना चाहती है। यह जानते हुए भी कि अंग्रेजों ने इसकी नींव इसलिए डाली थी कि उन्हें शिक्षित गुलाम चाहिए होते थे न कि ऐसे शिक्षित जो अपनी स्वतंत्र सोच रख सकें, तब हम इसे क्यों नहीं बदल सकते। यह समझ से परे है कि हमारे देश में अभी तक क्यों ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई जो शिक्षा को स्वरोजगार से जोड़ सके न कि उसे केवल नौकरी पाने तक का लक्ष्य बनाए।
अपने पिछले कार्यकाल में सरकार ने स्वरोजगार को प्रोत्साहित करने के लिए केवल ऋण देने तक ही अपने को क्यों सीमित रखा जबकि वास्तविकता यह है कि रोजगार कर सकने लायक शिक्षा के बिना केवल धन देने से कोई भी व्यवसाय आज के आधुनिक दौर में सफलतापूर्वक किया ही नहीं जा सकता।
भविष्य का संकेत यही है कि कुछ समय बाद एक बड़ी संख्या में यह ऋण लेने वाले सरकार के पास उसे माफ करने की गुहार लेकर जाएँगे क्योंकि उन्हें वह व्यवसाय या व्यापार या कल कारखाना या उद्यम करना ही नहीं आता था जिसके लिए उन्होंने सरकार की उदारता का फायदा उठाने के मकसद से ऋण लिया था। अगर समय रहते शिक्षा को रोजगारपरक बनाने और रोजगार से पहले उसके प्रशिक्षण की व्यवस्था न की गयी तो जनता को एक बार फिर निराश होने से रोक पाना नामुमकिन है और तब जो असंतोष उभरेगा उसकी कल्पना और उसके परिणामों का अन्दाज अभी से लगाया जा सकता है।
इस बार चुनाव की जीत बहुत अधिक ऐसे युवा वोटरों के कारण हुई है जो अपने अपने सपने साकार करना चाहते है जिनके लिए जाति, वर्ण या धर्म का उतना महत्व नहीं है जितना इस बात का कि उन्हें अपने भविष्य की नींव मोदी जी के आश्वासन से मजबूत होती दिखाई देती है कि वे कभी युवाओं को निराश नहीं होने देंगे।
देश को मिटने, झुकने न देने के आह्वान से ज्यादा जरूरी यह कि युवाओं के सपनों को मरने न दिया जाय और अधेड़ हो चुकी पीढ़ी के जीवन भर के अनुभवों को बेकार न होने दिया जाय। जेनरेशन गैप की खाई को भरने का काम करना भी इस सरकार की चुनौती है।
यह काम शिक्षा नीति को दुरुस्त करने और बेरोजगारी दूर करने के परम्परागत तरीकों से अलग हटकर नीति बनाने से ही किया जा सकेगा, इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए।
किसान और विज्ञान
इस सरकार का संकल्प यह है की एक निश्चित अवधि में किसानों की आमदनी को दुगुना किया जाएगा। इसके लिए जब तक किसान को खाद, बीज, बिजली, पानी और कीटनाशक बिना एक भी पैसा खर्च किए या बहुत ही कम लागत पर कम से कम तीन वर्षों तक देने के प्रबंध नहीं होंगे तब तक एक औसत किसान की आमदनी को दुगुना तो क्या उतना भी नहीं किया जा सकता कि वह अपनी गुजर बसर, बच्चों की पढ़ाई लिखाई और अपने खुशहाल होने का सपना भी देख सके।
इसके साथ ही खेती को जब तक विज्ञान और आधुनिक टेक्नालोजी और खेती के उन्नत तरीकों से नहीं जोड़ा जाएगा और परम्परागत खेती में बदलाव नहीं होगा तब तक न तो खेतीबाड़ी फायदे का सौदा ही सकती है और न ही किसान को निराश होकर शहर का रूख करने से रोका जा सकता है।
अगर किसान का भला करना है तो सबसे पहले ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित कृषि सूचना केंद्रों को कृषि विज्ञान और प्रशिक्षण केंद्रों में बदलना होगा जहाँ जाकर वह अपनी रोजमर्रा की समस्याओं का समाधान पा सके।
प्रदूषण और स्वास्थ्य
आज पूरा देश प्रदूषण से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं के भीषण दौर से गुजर रहा है। हवा हो, पानी हो, खाद्य पदार्थ हों इनका शुद्ध रूप में मिलना दिन प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है। हालाँकि इस चुनौती का सामना हम ही नहीं पूरा विश्व कर रहा है लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि हम इस कारण हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहें।
इस समस्या का उपाय जिस तरह विकसित देशों ने अपने यहाँ सख््त औद्योगिक कानून बना कर किया है और काफी हद तक सफलता पाई है, हमें भी उद्योगों से होने वाले जल और वायु प्रदूषण को रोकने के नए कड़े कानून बनाने होंगे और पहले से बने कानूनों की समीक्षा कर उन्हें बदल कर सख्ती से लागू करने की व्यवस्था करनी होगी। केवल लीपापोती से काम चलने वाला नहीं है क्योंकि न सिर्फ वर्तमान पीढ़ी बल्कि भविष्य में हमारी संतान के स्वस्थ रह पाने का खतरा सामने है।
नई सरकार यदि शुरू से ही इन कुछेक समस्याओं का समाधान और जनता की परेशानियों का निदान करने के बारे में सोचना शुरू कर नियम और नीति बनाने का काम कर लेगी तब ही निष्कंटक होकर जनता का एक बार फिर सहयोग और आशीर्वाद पा सकती है।
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