शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

कोरोना और चीन से लड़ाई के लिए आत्मनिर्भरता ही एकमात्र उपाय है








अब यह स्पष्ट नजर आ रहा है कि संसार के सभी देशों को कोरोना से बचकर रहने के लिए अपने देशवासियों को तैयार करते रहना होगा। चाहे इसकी कोई दवा निकले या न निकले पर यह रोग दूसरे अनेक भयंकर रोगों की तरह हमेशा के लिए दुनिया के गले पड़ गया है।

भारत पर दोहरा दवाब है, एक तरफ चीन से ही आई महामारी से बचना है और दूसरी तरफ चीन से कभी भी किसी भी तरह के युद्ध के लिए तैयार रहना है।



युवा शक्ति का विस्तार

यह जानकर चैन की सांस ली जा सकती है कि भारत की आधी से भी अधिक आबादी पच्चीस वर्ष की आयु से ऊपर की है और कुछ ही राज्यों जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा थोड़ा कम है। कुछ राज्यों में तो पच्चीस से कम उम्र की जनसंख्या उनकी चौथाई आबादी से भी नीचे है।

हालांकि इस बारे में बहस हो सकती है कि यह आधी युवा आबादी शिक्षा, ज्ञान और वैज्ञानिक सोच रखने के मामले में किस स्तर की है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यदि सम्पूर्ण आबादी की शक्ति को आंका जाए तो देश की विशालकाय छवि उभरती है, मतलब यह कि अगर सरकार चाहे तो अपनी नीतियों से इन्हें मजबूत बना सकती है और न चाहे तो हर बात में अड़ंगा डालते रहने की आदत से उसे बेड़ियों में जकड़ भी सकती है।



कोरोना के कारण लॉकडाउन होने से और वह भी महीनों के लिए घर में ही रहने का एक सुखद परिणाम यह निकला है कि इस दौरान युवा पीढ़ी जो हमेशा वक्त की कमी का रोना रोती रहती थी, उसे अब घर के बुजुर्गों के साथ रहने के कारण आपस में जो संवाद न होने से कम्युनिकेशन गैप आ गया था, उसकी भरपूर भरपाई हो गई है।


जहां युवावर्ग ने अधेड़ और वृद्ध पीढ़ी की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक जरूरतों को समझा है वहां अब युवा अपने मन की बात भी बुजुर्गों के साथ बांटने में हिचकिचा नहीं रहे। कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि पहले ये दोनों वर्ग कभी पास आते ही नहीं थे और कभी सामना हो गया तो एक दूसरे के साथ अजनबियों जैसा व्यवहार करते थे। इन दिनों उम्रदराज पीढ़ी को लगता है कि वे दिन लौट आए हैं जब भरापूरा परिवार एक साथ बैठा करता था, सब एक दूसरे की सुनते थे, शिकायत भी करते थे और मिलकर समस्यायों का समाधान भी निकालते थे।


कदाचित यही कारण है कि चाहे कोरोना हो या चीन दोनों का मुकाबला करने की एकजुट शक्ति का संकल्प साकार हो रहा है।




चीन की चाल क्या है?


चीन की विस्तारवादी और दूसरों को अशक्त बनाने की नीति को समझने के लिए हमें अपनी गुलामी के दौर की घटनाओं को सामने रखकर सोचना होगा। ब्रिटिश हुकूमत ने देशवासियों के मनोबल को तोड़ने और अंग्रेज के आगे आत्मसमर्पण करने के लिए भारत से कच्चा माल  लगभग मुफ्त ब्रिटेन ले जाकर वहां उससे विभिन्न उत्पाद बनाकर भारत में महंगे दाम पर बेचने का रास्ता अपनाया। हमारी खेतीबाड़ी पर कब्जा करने के लिए ऐसे नियम बनाए कि किसान भरपूर फसल होने के बावजूद भूखा रहे, उद्योग धंधों के कारीगरों को बेकार बनाकर अपने दफ्तरों में चपरासी बना दिया और अंग्रेजों के भारी वेतन से लेकर उनकी अय्याशी तथा ब्रिटेन लौटने पर उनकी पेंशन तक को भारत के संसाधनों और जनता से वसूला जाने लगा।


भारत में अंग्रेजों ने जो भी विकास कार्य किए या कानून लागू किए वे उन्होंने अपनी सहूलियत, विलासिता और भारतीयों को अछूत मानते हुए ही किए थे। हमारी दासता का यही सबसे बड़ा कारण था, परिणास्वरूप हम असहाय, कमजोर और आश्रित होते गए और अंग्रेजी हुकूमत काबिज होती गई।


अब चीन ने भी यही नीति बनाई। उसने भारत से ज्यादातर वह सामान खरीदा जो विभिन्न वस्तुओं के बनाने में कच्चे माल की तरह इस्तेमाल होता है और जो सस्ता भी मिल जाता है। चीन ने इससे अपने यहां सस्ते और घटिया क्वालिटी के अधिकतर वह सामान भारत को बेचना शुरू कर दिए जिससे हमारा घरेलू उद्योग धंदा ठप्प पड़ जाए। चीन ने हमारी रसोई, ड्रॉइंग रूम, बेडरूम से लेकर रोजाना काम आने वाली चीजों को इतने सस्ते दाम पर हमें सुलभ करा दिया कि हम स्वदेशी उत्पाद बनाने से लेकर उनका उपभोग करना तक भूलने लगे।


इससे लघु उद्योग बंद होते गए और उद्योगपति अब ट्रेडर बन गए, मतलब उत्पादन करना छोड़कर चीन से सभी तरह का सामान लाने लग गए और बाजार में हर जगह चीनी वस्तुओं का अंबार लग गया।


चीन ने इलेक्ट्रिक, इलेक्ट्रॉनिक, मोबाईल और कंस्ट्रक्शन तथा सभी तरह की सवारियों के आधे से भी अधिक बाजार पर कब्जा कर लिया। इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में भी उसने हमें बहुत पीछे छोड़ दिया।


इस तरह हम फिजिकल रूप से न सही, प्रैक्टिकल रूप से चीन और उसकी बनाई वस्तुओं पर निर्भर होते चले गए।  यह सब कुछ इतने व्यवस्थित ढंग से चीन ने किया जैसे कि मानो उसने हमें अफीम चटा दी हो।


चीन में एक कहावत है कि वह आर्थिक हो या सैन्य, किसी भी तरह का युद्ध  करने के लिए कैसा भी दुस्साहस कर सकता है और जीतने के लिए किसी भी तरह का जोखिम उठा सकता है।

चीन ने बहुत सोच समझ कर ही आक्रमण करने की कोशिश के लिए लद्दाख को चुना। वह अपने सीमावर्ती क्षेत्रों में बहुत पहले से सैन्य अभ्यास और युद्ध सामग्री को जुटाने में लगा हुआ था। हमारी सीमा के भीतर पिछले कुछ वर्षों में की गई तैयारी को छोड़कर कभी वहां का विकास करने और सामान्य जीवन जीने की सुविधाओं को जुटाने का गंभीर प्रयास नहीं किया गया।


दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों की अपनी कठिनाइयां होती है और बर्फीले तूफान से घिरे प्रदेश की मुसीबतों को झेलना आसान नहीं होता। हमारे सैनिकों ने अदम्य साहस का परिचय दिया है और जीतने के संकल्प से ही वहां मुकाबला कर रहे हैं। उनके सम्मान, इच्छाशक्ति और शौर्य तथा वीरता के सामने शत्रु का परास्त होना निश्चित है।


अगर हमें चीन से बाजी मारनी है तो उसके नहले पर दहला चलना होगा। इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के तहत चीनी ऐप्स बंद करने से शुरुआत हो चुकी है, रूस तथा अन्य मित्र देशों से अस्त्र शस्त्र जुटाना शुरू हो चुका है, अब आर्थिक और व्यापारिक क्षेत्र में उसे मात देने के लिए स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देने वाली नीतियों का इंतजार है।



इतिहास से सीखना होगा


अगर विश्व इतिहास पर नजर डालें तो अमेरिका चार जुलाई 1776 को आजाद हुआ था और चीन एक अक्टूबर 1949 को तथा भारत पंद्रह अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ था। अमेरिका अनेक शताब्दियों के बाद विश्व शक्ति बन पाया जबकि चीन सत्तर वर्षों में ही उससे टक्कर लेने लगा। भारत भी इसमें पीछे नहीं रहा और हम भी अब विश्व शक्ति हैं, इसका प्रमाण यह कि अब कोई भी देश हमें हल्के में लेने की गलती नहीं कर सकता और चीन तो बिल्कुल नहीं क्योंकि उसके आर्थिक, औद्योगिक और व्यापारिक तंत्र को ध्वस्त करने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।



भारत

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